Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन हैं । इसीलिए वस्तु को अनेक धर्मात्मक कहा गया है। अपेक्षाभेद से दृष्टिभेद का प्रतिपादन करना और उस दृष्टिभेद को वस्तुधर्म का एक अंश समझना, यही अनेकान्तवाद है । अपेक्षाभेद को दृष्टि में रखते हुए अनन्त-धर्मात्मक तत्त्व का प्रतिपादन 'स्याद्' शब्द द्वारा हो सकता है, अतः अनेकान्तवाद का नाम स्याद्वाद भी है । स्याद्वाद का यह सिद्धान्त जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों में भी मिलता है। मीमांसा, सांख्य और न्यायदर्शन में यत्र-तत्र अनेकान्तवाद बिखरा हुआ मिलता है । बुद्ध का विभज्यवाद स्याद्वाद का ही निषेधात्मक रूपान्तर है। इतना होते हुए भी किसी दर्शन ने स्याद्वाद को सिद्धान्तरूप से स्वीकृत नहीं किया। अपने पक्ष की सिद्धि के लिए उन्हें यत्र-तत्र स्याहाद का आश्रय अवश्य लेना पड़ा; परन्तु उन्होंने जानबूझ कर उसे अपनाया हो. ऐसी बात नहीं है। जैन परम्परा ने जैसे अहिंसा पर अधिक भार दिया है वैसे ही अनेकान्तवाद पर भी अत्यधिक भार दिया है । दूसरे शब्दों में अनेकान्तवाद जैन दर्शन का प्राण है। जैन परम्परा का प्रत्येक आचार और विचार अनेकान्तदृष्टि से प्रभावित है। जैन विचारधारा का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जिस पर अनेकान्त-दृष्टि की छाप न हो। जैन दार्शनिकों ने इस विषय पर एक नहीं, अनेकों ग्रन्थ लिखे हैं । अनेकान्त-दृष्टि के आधार पर ही नयवाद का विकास हुआ है। स्याद्वाद और नयवाद जैन परम्परा की अमूल्य सम्पत्ति है । जैन दार्शनिक साहित्य का मुख्य आधार अनेकान्तदृष्टि की भूमि में उत्पन्न होकर बढ़ने वाले स्याद्वाद और नयवाद हैं। आगमिक साहित्य से लेकर आज तक का साहित्य स्याद्वाद और नयवाद के मौलिक सिद्धान्तों से भरा हुआ है। जैन विद्वानों का यह दृष्टिकोण विश्व की दार्शनिक परम्परा में अद्वितीय है।
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