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तत्वविचार
१११ है। जैन परम्परा नियतिवाद' में विश्वास न करके इच्छास्वातन्त्र्य' को महत्व देती है किन्तु एक सीमा तक । प्राणी की रागद्वेषात्मक भावनाओं को जैन दर्शन में भावकर्म कहा गया है । उक्त भावकर्म के द्वारा आकृष्ट सूक्ष्म भौतिक परमाणु द्रव्यकर्म है। इस प्रकार जैन दर्शन का कर्मवाद चैतन्य और जड़ के सम्मिश्रण द्वारा अनादिकालीन परम्परा से विधिवत् अग्रसर होती हुई एक प्रकार की द्वन्द्वात्मक आन्तरिक क्रिया है। इस क्रिया के आधार पर ही पुनर्जन्म का विचार किया जाता है । इस क्रिया की समाप्ति ही मोक्ष है। जैनदर्शन-प्रतिपादित चौदह गुणस्थान इसी क्रिया का क्रमिक विकास है, जो अन्त में आत्मा के असली रूप में परिणत हो जाता है । आत्मा का अपने स्वरूप में वास करना, यही जैन दर्शन का परमेश्वरपद है । प्रत्येक आत्मा के भीतर यह पद प्रतिष्ठित है। आवश्यकता है उसे पहचानने की। 'जे अप्पा से परमप्पा' अर्थात् 'जो आत्मा है वही परमात्मा है'-जैन परम्परा की यह घोषणा साम्यदृष्टि का अन्तिम स्वरूप है, समभाव का अन्तिम विकास है, समानता का अन्तिम दावा है ।
विचार में साम्यदृष्टि की भावना पर जो जोर दिया गया है उसी में से अनेकान्तदृष्टि का जन्म हुआ है। अनेकान्तदृष्टि तत्त्व को चारों ओर से देखती है। तत्त्व का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अनेक प्रकार से जाना जा सकता है । वस्तु के अनेक धर्म होते हैं। किसी समय किसी की दृष्टि किसी एक धर्म पर भार देती है तो किसी समय दूसरे की दृष्टि किसी दूसरे धर्म पर जोर देती है। तत्त्व की दृष्टि से उस वस्तु में सभी धर्म 1. Pre-determinism. 2. Freedom of Will.
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