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तस्वfवचार
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देखा जा सकता है : १. समाजविषयक, २. साध्यविषयक, ३. प्राणिजगत् के प्रति दृष्टिविषयक । समाज विषयक साम्य का अर्थ है - समाज में किसी एक वर्ण का जन्मसिद्ध श्रेष्ठत्व या कनिष्ठत्व न मानकर गुणकृत एवं कर्मकृत श्रेष्ठत्व या कनिष्ठत्व मानना | श्रमण संस्कृति समाज रचना एवं धर्म-विषयक अधिकार की दृष्टि से जन्मसिद्ध वर्ण और लिंगभेद को महत्त्व न देकर व्यक्ति द्वारा समाचरित कर्म और गुण के आधार पर ही समाज-रचना करती है । उसकी दृष्टि में जन्म का उतना महत्त्व नहीं है जितना कि पुरुषार्थ और गुण का । मानव समाज का सही आधार व्यक्ति का प्रयत्न एवं कर्म है, न कि जन्मसिद्ध तथाकथित श्रेष्ठत्व | केवल जन्म से कोई श्रेष्ठ या हीन नहीं होता । हीनता और श्रेष्ठता का वास्तविक आधार स्वकृत कर्म है । साध्य-विषयक साम्य का अर्थ है - अभ्युदय का एक सरीखा रूप । श्रमण संस्कृति का साध्य-विषयक आदर्श वह अवस्था है जहाँ किसी प्रकार का भेद नहीं रहता । वह एक ऐसा आदर्श है जहाँ ऐहिक एवं पारलौकिक सभी स्वार्थी का अन्त हो जाता है । वहाँ न इस लोक के स्वार्थ सताते हैं, न परलोक का प्रलोभन व्याकुलता उत्पन्न करता है । वह ऐसी साम्यावस्था है जहाँ कोई किसी से कम योग्य नहीं रहने पाता । वह अवस्था योग्यता और अयोग्यता, अधिकता और न्यूनता, हीनता और श्रेष्ठता - सभी से परे है । प्राणि-जगत् के प्रति दृष्टिविषयक साम्य का अर्थ है - जीव जगत् के प्रति पूर्ण साम्य । ऐसी समता कि जिसमें न केवल मानव
१. जैनधर्म का प्रारण, पृ० १.
२. भगवतीसूत्र, ६.६.३८३.
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