Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्त्वविचार
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परम्पराओं के साधक और त्यागी वर्ग के लिए श्रमण, भिक्षु, अनगार, यति, साधु, परिव्राजक, अर्हत्, जिन आदि शब्दों का प्रयोग होता रहा है। एक 'निर्ग्रन्थ' शब्द ऐसा है जिसका प्रयोग जैन परम्परा के साधकों के लिए ही हुआ है । यह शब्द जैन ग्रन्थों में 'निग्गंथ' और बौद्ध ग्रन्थों में 'निगंठ' के नाम से मिलता है । इसीलिए जैनशास्त्र को 'निर्ग्रन्थ- प्रवचन' भी कहागया है । यह 'निग्गंथ-पावयण' का संस्कृत रूप है । 'श्रमण' शब्द का अर्थ :
श्रमण के लिए प्राकृत साहित्य में 'समण' शब्द का प्रयोग हुआ है। जैन-सूत्रों में जगह-जगह 'समण' शब्द आता है, जिसका अर्थ होता है साधु । उक्त 'समण' शब्द के तीन रूप हो सकते है : श्रमण, समन और शमन । श्रमण शब्द 'श्रम्' धातु से बनता है । 'श्रम्' का अर्थ होता है - परिश्रम करना ।
तपस्या का दूसरा नाम परिश्रम भी है ।" जो व्यक्ति अपने ही श्रम से उत्कर्ष की प्राप्ति करते हैं वे श्रमण कहलाते हैं । समन का अर्थ होता है समानता । जो व्यक्ति प्राणी मात्र के प्रति समभाव रखता है, विषमता से हमेशा दूर रहता है, जिसका जीवन विश्व - प्रेम और विश्वबन्धुत्व का प्रतीक होता है, जिसके लिए स्व-पर का भेद-भाव नहीं होता, जो प्रत्येक प्रांणी से उसी भाँति प्रेम करता है जिस प्रकार खुद से प्रेम करता है, उसे किसी के प्रति द्वेष नहीं होता और न किसी के प्रति उसे राग ही होता है । वह राग और द्वेष की तुच्छ भावना से ऊपर उठकर सबको एक दृष्टि से देखता है। उसका विश्वप्रेम घृणा और आसक्ति की छात्रा से सर्वथा अछूता रहता है । वह सबसे प्रेम करता है किन्तु उसका प्रेम राग की कोटि में
१. श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः - दशवेकालिकवृत्ति, १.३.
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