Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन नहीं रही है। इतना ही नहीं अपितु ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर तो यह भी सिद्ध किया जा सकता है कि बौद्ध परम्परा पर जैन परम्परा का पूरा प्रभाव है। कुछ भी हो, जैन परम्परा का स्वतन्त्र अस्तित्व है, यह निर्विवाद सत्य है इस परम्परा का भारतीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रभाव है । आचार और विचार दोनों पर इसकी अमिट छाप है। अब हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि जैन परम्परा के आचार और विचार की भित्ति क्या है । जैन परम्परा द्वारा मान्य आचार और विचार के मौलिक सिद्धान्त क्या हैं। किन सिद्धान्तों पर जैनाचार और जैन विचार खड़े हैं।
जैनाचार की मूलभित्ति अहिंसा है । अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन जैन परम्परा में मिलता है उतना शायद ही किसी अन्य परम्परा में हो । प्रत्येक आत्मा, चाहे वह पृथ्वी-सम्बन्धी हो, चाहे वह जलगत हो, चाहे उसका आश्रय कीट अथवा पतंग हो, चाहे वह पशु और पक्षी में रहती हो, चाहे उसका निवासस्थान मानव हो, तात्त्विक दृष्टि से उसमें कोई भेद नहीं है। जैनदृष्टि का यह साम्यवाद भारतीय संस्कृति के लिए गौरव की चीज है। इसी साम्यवाद के आधार पर जैन परम्परा यह घोषणा करती है कि सभी जीव जीना चाहते हैं । कोई वास्तव में मरने की इच्छा नहीं करता। इसलिए हमारा यह कर्तव्य है कि हम मन से भी किसी का वध करना न सोचें।' शरीर से किसी की हत्या कर देना तो पाप है ही, किन्तु मन से तद्विषयक संकल्प करना, यह भी पाप है। मन, वचन और काय से किसी जीव को सन्ताप न पहुंचाना, उसका वध न करना, उसे पीड़ा न पहुँचाना-यही
पहुंचाना वचन और कायाकल्प करना, यह
१. आचारांग, १. १. ६.
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