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जैन धर्म दर्शन परम्परा। दोनों सदैव साथ-साथ चली हैं और माथ-साथ चलती रहेंगी। ये दोनों परम्पराएं ऐतिहासिक परम्पराएं नहीं हैं, अपितु मानव-जीवन की दो धाराएँ हैं। इन दोनों धाराओं का आधार दो सम्प्रदायविशेष नहीं हैं, अपितु सम्पूर्ण मानवजाति है। मानव स्वयं इन दो धाराओं का स्रोत है। दूसरे शब्दों में, ये दोनों धाराएं मनोवैज्ञानिक सत्य पर अवलम्बित हैं । मानव का स्वाभाविक प्रवाह ही ऐसा है कि वह इन दोनों धाराओं में प्रवाहित होता है। कभी वह एक धारा को अधिक महत्त्व देता है तो कभी दूसरी को। सत्तारूप से दोनों धाराएं उसमें हमेशा मौजूद रहती हैं। जब तक कि वह मानवता के स्तर पर रहता है, उससे सर्वथा ऊपर नहीं उठ जाता अथवा नीचे नहीं गिर जाता, तब तक वह इन दोनों धाराओं में प्रवाहित होता ही रहता है। ब्राह्मण संस्कृति या वैदिक संस्कृति दोनों धाराओं में से एक की प्रतीक है। श्रमण संस्कृति या संतसंस्कृति दूसरी धारा पर भार देती है। एक समय ऐसा आता है जब पहली धारा का मानव-समाज पर अधिक प्रभाव रहता है। दूसरा समय ऐसा होता है जब दुमरी धारा विशेष प्रभावशाली होती है। यह परम्परा न कभी प्रारम्भ हुई है और न कभी समाप्त होगी। यह प्रवाह अनादि है, अनन्त है। दोनों धाराएं इस प्रवाह में रही हैं, आज भी हैं और आगे भी रहेंगी। उन पर न काल का विशेष प्रभाव है, न विकास का ही कोई खास असर है । काल और विकास उन्हीं के दो रूप हैं। ब्राह्मण संस्कृति :
ब्राह्मण और श्रमण परम्पराओं में उतना ही अन्तर है जितना भोग और त्याग, हिंसा और अहिंसा, शोषण और पोषण, अन्धकार और प्रकाश में अन्तर है। एक धारा मानव
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