Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्त्वविचार
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यह ठीक है कि उपनिषद् ब्राह्मण परम्परा द्वारा मान्य हैं, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वे श्रमण परम्परा के प्रभाव से सर्वथा अछूते हैं । वास्तव में उपनिषदों का निर्माण करने वाले ऋषियों ने वैदिक मान्यताओं के प्रति एक प्रकार का छिपा विद्रोह किया और उस विद्रोह के पीछे श्रमण परम्परा का मुख्य हाथ था ।
ब्राह्मण परम्परा का यह दावा कि वह भारत की या विश्व की सबसे पुरानी संस्कृति है. ठीक नहीं है । उसी प्रकार श्रमण परम्परा की यह धारणा कि उसी के प्रभाव से उपनिषदों के ऋषियों की दृष्टि में अकस्मात् परिवर्तन हुआ, मिथ्या है। ये दोनों धारणाएँ इसलिए मिथ्या हैं कि इनका आधार मात्र ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। कुछ सहस्र वर्षों के उपलब्ध साहित्य को देखकर केवल उसी पर से किसी अन्तिम निर्णय पर पहुँच जाना सबसे बड़ी ऐतिहासिक भन है। कौन धारा प्राचीन है, इसका जब हम निर्णय करते हैं तो उनका अर्थ होता है-कौन सबसे प्राचीन है । जहाँ पर सबसे प्राचीनता का प्रश्न आता है वहाँ पर ऐतिहासिक दृष्टि कभी सफल नहीं होती, क्योंकि वह स्वयं अधूरी है। जब तक वह अपने आपको पूर्ण न बनाये, उसका निर्णय हमेशा अधरा रहेगा - सापेक्ष रहेगा सीमित रहेगा | अपनी मर्यादा का उल्लंघन किये बिना उसका जो निर्णय होगा वह सत्य हो सकता है । इतिहास का आधार बाह्य सामग्री है । जितनी सामग्री उपलब्ध होगी उतने ही परिमाण में उसका निर्णय सत्य या असत्य होगा। वर्तमान समय का इतिहास इस बात का दावा नहीं कर सकता कि उसकी सामग्री पूर्ण है ।
सत्य यह है कि अपने-आप में दोनों विचारधाराएं अनादि हैं। न तो ब्राह्मण परम्परा अधिक प्राचीन है और न श्रमण
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