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जैन धर्म-दर्शन का साहित्य
८७ चर्चा होने लगी। श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यताओं के पारस्परिक खण्डन-मण्डन ने अधिक जोर पकड़ लिया ।
अनन्तवीर्य ने अकलंक के सिद्धिविनिश्चय पर टीका लिख कर जैन-दर्शन की बड़ी सेवा की। सिद्धिविनिश्चय को समझने में यह टीका अति सहायक सिद्ध होती है। अकलंक के सूत्रवाक्यों को ठीक तरह से समझने के लिए अनन्तवीर्य का सिद्धिविनिश्चय-विवरण आवश्यक है। माणिक्यनन्दी, सिद्धषि और अभयदेव :
दसवीं शताब्दी में माणिक्यनन्दी ने परीक्षामुख नामक एक न्यायग्रन्थ बनाया। यह ग्रन्थ जैन न्यायशास्त्र में प्रवेश करने के लिए बहुत उपयोगी है । इसकी शैली मूत्रात्मक होते हुए भी सरल है। यह ग्रन्थ बाद में लिखे जाने वाले जैन न्यायशास्त्र के कई ग्रन्थों के लिए आदर्श रहा । इसी समय पिद्धर्षि ने न्यायावतार पर संक्षिप्त और सरल टीका लिखी।
अभयदेव ने सन्मतिटीका की रचना की । इसमें अनेकान्तवाद का पूर्ण विस्तार है। तत्कालीन सभी दार्शनिक वादों का विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है । यह तत्कालीन दार्शनिक ग्रन्थों का निचोड़ है । अनेकांतवाद की स्थापना के अतिरिक्त प्रमाण, प्रमेय आदि विषयों पर भी अच्छी चर्चा की गई है। प्रभाचन्द्र और वादिराज :
प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र ये दो ग्रन्थ प्रमाणशास्त्र के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड, माणिक्यनन्दीकृत परीक्षामुख पर एक बृहत्काय टीका है। प्रमाणशास्त्र से सम्बद्ध सभी विषयों पर प्रकाश डालकर प्रभाचन्द्र ने इस ग्रन्थ को उत्कृष्ट कोटि में रख दिया है। स्त्रीमुक्ति और केवलिकवलाहार
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