Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्त्वविचार
जैन परम्परा दर्शन के अन्तर्गत आती है या उसका समावेश धर्म के अन्दर होता है ? यह हम जानते हैं कि दर्शन नर्क और हेतुवाद पर अवलम्बित है, जबकि धर्म का आधार मुख्य रूप से श्रद्धा है। श्रद्धा और तर्क दोनों का आश्रय मानव है, तथापि इन दोनों में प्रकाश और अन्धकार जितना अन्तर है। श्रद्धा जिस बात को सर्वथा सत्य मानती है, तर्क उसी बात को फूंक से उड़ा देता है। श्रद्धा के लिए जो सर्वस्व है, तर्क की दृष्टि में उसी का सर्वथा अभाव हो सकता है । जो वस्तु श्रद्धा के लिए आकाश-कुसुमवत् होती है, हेतु उसी के पीछे अपनी पूरी शक्ति लगा देता है। ऐसी स्थिति में क्या यह संभव है कि एक ही परम्परा धर्म और दर्शन दोनों हो ? भारतीय विचारधारा तो यही बताती है कि दर्शन और धर्म साथ-साथ चल सकते हैं। श्रद्धा और तर्क के सहानवस्थानरूप विरोध को भारतीय पर. म्परा आचार और विचार के विभाजन से शान्त करती है। प्रत्येक परम्परा दो दृष्टियों से अपना विकास करती है। एक ओर आचार की दिशा में उसकी गति या स्थिति का निर्माण होता है और दूसरी ओर बुद्धि एवं तर्क-शक्ति के संतोष के लिए विचार का विकास होता है। श्रद्धालु व्यक्तियों की सन्तुष्टि के लिए आचार-मार्ग सहायक होता है तथा चिन्तनशील व्यक्तियों की तृप्ति के लिए विचार-परम्परा का सहयोग मिलता है।
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