________________
जैन धर्म-दर्शन का साहित्य स्वोपज्ञ व्याख्या है। इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह सूत्र और व्याख्या दोनों को मिलाकर भी मध्यमकाय है। यह न तो परीक्षामुख और प्रमाणनयतत्त्वालोक जितना संक्षिप्त ही है और न प्रमेयकमलमार्तण्ड और स्याद्वादरत्नाकर जितना विशाल ही। इसमें न्यायशास्त्र के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का मध्यम प्रतिपादन है। इस ग्रन्थ को समझने के लिए न्यायशास्त्र की पूर्वभूमिका जानना अत्यन्त आवश्यक है। दुर्भाग्य से यह ग्रन्थ पूर्ण उपलब्ध नहीं है।
इसके अतिरिक्त हेमचन्द्र की अयोगव्यवच्छेदिका और अन्ययोगव्यवच्छेदिका नामक दो द्वात्रिंशिकाएं भी हैं। इनमें से अन्ययोगव्यवच्छेदिका पर मल्लिषेण ने स्याद्वादमंजरी नामक टीका लिखी है जो शैली और सामग्री दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । हेमचन्द्र की मृत्यु वि० सं० १२२८ में हुई। अन्य दार्शनिक : __ बारहवीं शताब्दी में हुए शान्त्याचार्य ने न्यायावतार पर स्वोपज्ञ टीका-सहित वार्तिक लिखा। इसमें उन्होंने अकलंक द्वारा स्थापित प्रमाण के भेदों का खण्डन किया है और न्यायावतार की परम्परा को पुनः स्थापित किया है।
स्याद्वादरत्नाकर को समझने में सरलता हो, इस दृष्टि से वादिदेवसूरि के ही शिष्य रत्नप्रभसूरि ने-जिन्होंने स्याद्वादरत्नाकर के लेखन में भी सहायता दी थी-अवतारिका बनाई। यह ग्रन्थ रत्नाकरावतारिका नाम से प्रसिद्ध है । ग्रन्थ की भाषाविषयक आडम्बरता ने इसे स्याद्वादरत्नाकर से भी कठिन बना दिया। इतना होते हुए भी इस ग्रन्थ का इतना प्रभाव पड़ा कि स्याद्वादरत्नाकर का पठन-पाठन प्रायः बन्द-सा हो गया। सभी. लोग इसी से अपना काम निकालने लगे। इसका परिणाम यह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org