Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जन धर्म-दर्शन
पर्यायाथिक दृष्टि का सुन्दर विवेचन है । दूसरे काण्ड में ज्ञान
और दर्शन पर अच्छी चर्चा है। तृतीय काण्ड में गुण और पर्याय, अनेकान्त-दृष्टि और तर्क व श्रद्धा पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। ___ मूल रूप से दो नय हैं-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । सभी नयों का समावेश इन दो नयों में हो जाता है। जहाँ दृष्टि द्रव्यसामान्य अथवा अभेदमूलक होती है वहां द्रव्याथिक नय कार्य करता है और जहाँ दृष्टि पर्यायविशेष अथवा भेदमूलक होती है वहाँ पर्यायार्थिक नय कार्य करता है। हम प्रत्येक तत्त्व का इन दो दृष्टियों में विभाजन कर सकते हैं। तत्त्व का कोई भी पहल इन दो दृष्टियों का उल्लंघन नहीं कर सकता अर्थात् या तो वह सामान्यात्मक होगा या विशेषात्मक । इन दो दृष्टियों को छोड़कर वह कहीं नहीं जा सकता। सिद्धसेन ने देखा कि दार्शनिक जगत् में जितना भी झगड़ा होता है वह इन दो दृष्टियों के कारण ही होता हैं। कोई दार्शनिक केवल द्रव्यार्थिक दृष्टि को ही सब कुछ मान लेता है तो दूसरा पर्यायार्थिक दृष्टि को ही अन्तिम सत्य समझ बैठता है। इन दोनों दृष्टि यों का एकान्त आग्रह ही सारे क्लेश का मूल है । अनेकान्त दृष्टि दोनों का समान रूप से सम्मान करती है । इस प्रकार की दृष्टि ही सम्यग्दृष्टि है।
इस प्रकार कार्य-कारणभाव का जो झगड़ा है वह भी अनेकान्तवाद की दृष्टि से सुलझाया जा सकता है। कार्य और कारण का एकान्त भेद मिथ्या है। न्याय, वैशेषिक आदि दर्शन इसलिए अपूर्ण हैं कि वे कार्य और कारण में एकान्त भेद मानते हैं । सांख्य का मत है कि कार्य और कारण में एकान्त अभेद है। कारण ही कार्य है अथवा कार्य कारणरूप ही
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