Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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सिद्धसेन :
भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में नागार्जुन ने एक बहुत बड़ी हलचल मचा दी थी। जब से नागार्जुन इस क्षेत्र में आये, दार्शनिक वाद-विवादों को एक नया रूप प्राप्त हुआ । श्रद्धा के स्थान पर तर्क का साम्राज्य हो गया । पहले तर्क न था. ऐसी बात नहीं है। तर्क के होते हुए भी अधिक काम श्रद्धा से ही चल जाता था । यही कारण था कि दर्शन का व्यवस्थित आकार न बन पाया । नागार्जुन ने इस क्षेत्र में आकर एक क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिया। यह क्रान्ति बौद्ध दर्शन तक ही सीमित न रही। इसका प्रभाव भारत के सभी दर्शनों पर बड़ा गहरा पड़ा । परिणामस्वरूप जैन दर्शन भी उससे अछूता न रह सका । सिद्धसेन और समन्तभद्र जैसे महान् तार्किकों को पैदा करने का बहुत-कुछ श्रेय नागार्जुन को ही है । यह समय पाँचवीं छठी शताब्दी का है। जंनाचार्यों ने इस युग में महावीर के समय से बिखरे रूप में चले आते हुए अनेकांतवाद को सुनिश्चित रूप प्रदान किया । इस युग में पाँच प्रसिद्ध जैनाचार्य हुए हैं । सिद्धसेन और समन्तभद्र के अतिरिक्त मल्लवादी, सिंहगणि और पात्रकेशरी के नाम उल्लेखनीय हैं ।
जैन धर्म-दर्शन
नागार्जुन ने शून्यवाद का समर्थन किया । शून्यवादियों के अनुसार तत्त्व न सत् है, न असत् है, न सदसत् हैं, न अनुभय । 'चतुष्कोटिविनिर्मुक्त' रूप से तत्त्व का वर्णन किया जा सकता है । विचार की चारों कोटियाँ तत्त्व को ग्रहण करने में असमर्थ हैं। विचार जिस चीज को ग्रहण करता है वह मात्र लोक व्यवहार है। बुद्धि से विवेचन करने पर हम किसी एक स्वभाव तक नहीं पहुँच सकते । हमारी बुद्धि किसी
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