Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
View full book text
________________
जैन धर्म-दर्शन का साहित्य
७७
न्यायावतार और बत्तीसियों में भी सिद्धसेन ने अपनी मान्यताओं की पुष्टि का पूर्ण प्रयत्न किया है। सिद्धसेन ने सचमुच जैन दर्शन के इतिहास में एक नये युग की स्थापना की ।
समन्तभद्र :
श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धसेन का जो स्थान है वही दिगम्बर परम्परा में समन्तभद्र का है । समन्तभद्र की प्रतिभा विलक्षण थी, इसमें कोई संदेह नहीं। उन्होंने स्याद्वाद की सिद्धि के लिए अथक परिश्रम किया । उनकी रचनाओं का छिपा हुआ लक्ष्य स्याद्वाद ही होता है । स्तोत्र की रचना हो तो क्या और दार्शनिक कृति हो तो क्या सभी का लक्ष्य एक ही था और वह था स्याद्वाद की सिद्धि । सभी वादों की ऐकान्तिकता में दोष दिखा कर उनका अनेकान्तवाद में निर्दोष समन्वय कर देना समन्तभद्र की ही खूबी थी । स्वयम्भू स्तोत्र में चौबीस तीर्थ करों की स्तुति के बहाने दार्शनिक तत्त्व का क्या ही सुन्दर एवं अद्भुत समावेश किया है । यह स्तोत्र स्तुतिकाव्य का उत्कृष्ट नमूना तो है ही, साथ ही इसके अन्दर भरा हुआ दार्शनिक वक्तव्य अत्यन्त महत्त्व का हैं । प्रत्येक तीर्थंकर की स्तुति में किसी-न-किसी दार्शनिक वाद का निर्देश करना वे नहीं भूले । स्वयम्भूस्तोत्र की तरह युक्त्यनुशासन भी एक उत्कृष्ट स्तुतिकाव्य है । इस काव्य में भी यही बात है । स्तुति के बहाने अन्य ऐकान्तिक वादों में दोष दिखाकर स्वसम्मत भगवान् के उपदेशों में गुणों के दर्शन कराना इस काव्य की विशेषता है । यह तो अयोगव्यवच्छेद हुआ। इसके अतिरिक्त भगवान् के उपदेशों में जो गुण हैं वे अन्य किसी के उपदेश में नहीं, यह लिखकर उन्होंने अन्ययोगव्यवच्छेद के सिद्धान्त का भी आधार लिया ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org