Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन का साहित्य की वाणी को ही आप्त-प्रणीत मानता है। जो वाणी प्रमाण से बाधित हैं वह सर्वज्ञ की वाणी नहीं हो सकती क्योंकि सर्वज्ञ की वाणी कभी बाधित नहीं होती। अबाधित वाणी ही आप्तवचन है । इस प्रकार के आप्तवचन ही प्रमाणभत माने जा सकते हैं । प्रत्यक्षादि प्रमाण से बाधित सिद्धान्तों को आप्तवचन नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार अबाधित सिद्धान्त ही आप्तत्व की कसौटी है। इस कसौटी को हाथ में लेकर समन्तभद्र आगे बढ़ते हैं और सभी प्रकार के ऐकान्तिक वादों में प्रमाण-विरोध दिखाकर अनेकान्तवाद की ध्वजा ऊंची फहराते हैं।
एकान्तवाद के दो मुख्य पहलू हैं। एक पक्ष एकान्त सत् का प्रतिपादन करना है तो दूसरा पक्ष एकान्त असत् का। एक पक्ष शाश्वतवाद का आश्रय लेता है तो दूसरा पक्ष उच्छेदवाद का प्रतिपादन करता है। इसी प्रकार नित्यकान्त और अनित्यकान्त, भेदैकान्त और अभेदैकान्त, सामान्य कान्त और विशेषकान्त, गुणकान्त और द्रव्य कान्त, सापेक्षकान्त और निरपेक्षकान्त, हेतुवादकान्त और अहेतुवादकान्त, विज्ञानकान्त और भूतकान्त, देवकान्त और पुरुषार्थ कान्त, वाच्यकांत और अवाच्यकांत आदि दृष्टिकोण एकांतवाद के समर्थक हैं। . समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में दो विरोधी पक्षों के ऐकांतिक
आग्रह से उत्पन्न होनेवाले दोषों को दिखाकर स्याद्वाद की स्थापना की है। स्याद्वाद को लक्ष्य में रखकर सप्तभंगी की योजना की है। प्रत्येक दो विरोधी वादों को लेकर सप्तभंगी की योजना किस प्रकार हो सकती है, इसका स्पष्टीकरण समन्तभद्र ने किया है।
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