Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म दर्शन का साहित्य
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अपनी ही रचना है। इसके अतिरिक्त 'सर्वार्थसिद्धि' नाम की एक संक्षिप्त किन्तु अति महत्त्वपूर्ण टीका मिलती है। यह टीका पूज्यपाद की कृति है जो छठी शताब्दी में हुए थे । ये । दिगम्बर परम्परा के आचार्य थे । अकलंक ने 'राजवार्तिक' की रचना की । यह टीका बहुत विस्तृत है । इसमें दर्शन के प्रत्येक विषय पर किसी-न-किसी रूप में प्रकाश डाला गया है । कहीं-कहीं खण्डन मण्डन की दृष्टि की मुख्यता है । विद्यानन्दकृत 'श्लोकवार्तिक' भी महत्त्वपूर्ण टीका है। ये दोनों भी दिगम्बर परम्परा के ही आचार्य थे । सिद्धसेन और हरिभद्र ने क्रमश: बृहत्काय और लघुकाय वृत्तियों की रचना की । ये दोनों श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य थे। इन टीकाओं में भी दार्शनिक दृष्टिकोण की ही प्रधानता है । जैन दर्शन की आगे की प्रगति पर इन टीकाओं का काफी प्रभाव पड़ा । जिस प्रकार दिङ्नाग के 'प्रमाण समुच्चय' पर धर्मकीर्ति ने 'प्रमाणवार्तिक' लिखा और उसी को केन्द्रबिन्दु मानकर समग्र बौद्ध दर्शन विकसित हुआ उसी प्रकार तत्वार्थसूत्र की इन टीकाओं के आसपास जैन दार्शनिक साहित्य का विकास हुआ। इन टीकाओं के अतिरिक्त बारहवीं शताब्दी में मलयगिरि ने और चौदहवीं शताब्दी में चिरन्तन मुनि ने भी तत्वार्थ सूत्र पर टीकाएं लिखीं। अठारहवीं शताब्दी में नव्यन्याय शैली के प्रकाण्ड पण्डित यशोविजय ने भी टीका लिखी । दिगम्बर परम्परा के श्रतसागर, विबुधसेन, योगीन्द्रदेव, योगदेव, लक्ष्मीदेव, अभयनन्दी आदि विद्वानों ने भी तत्त्वार्थ सूत्र पर अपनी-अपनी टीकाएं लिखी थीं। बीसवीं शताब्दी में पं० सुखलालजी संघवी आदि विद्वानों ने हिन्दी आदि भाषाओं में तत्त्वार्थमूत्र पर सुन्दर विवेचन लिखे हैं ।
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