Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन का साहित्य आचार्य उमास्वाति सर्वप्रथम संस्कृत-लेखक हैं जिन्होंने जंन दर्शन पर अपनी कलम उठाई। उनकी भाषा सरल एवं संक्षिप्त है । शैली में प्रवाह है। उनका तत्त्वार्थाधिगमसूत्र श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में समान रूप से मान्य है। इसमें दस अध्याय हैं जिनमें जैन दर्शन और जैन आचार का संक्षिप्त निरूपण है। खगोल और भूगोलविषयक मान्यताओं का भी वर्णन है। यों कहना चाहिए कि यह ग्रन्थ जैन तत्त्वज्ञान, आचार, भूगोल, खगोल, आत्मविद्या, पदार्थविज्ञान, कर्मशास्त्र आदि अनेक विषयों का संक्षिप्त कोष है।
प्रथम अध्याय में ज्ञान से सम्बन्ध रखनेवाली निम्न बातों पर प्रकाश डाला गया है : ज्ञान और दर्शन का स्वरूप, नयों का लक्षण, ज्ञान का प्रामाण्य । सर्वप्रथम दर्शन का अर्थ बताया गया है। तदनन्तर प्रमाण और नयरूप से ज्ञान का विभाग किया गया है। फिर मति आदि पाँच ज्ञानों का प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों में विभाजन किया गया है। उसके बाद मति ज्ञान की उत्पत्ति और उसके भेदों पर प्रकाश डाला गया है। तदुपरान्त श्रुतज्ञान का वर्णन है। फिर अवधि, मनःपर्य य और केवलज्ञान और उनके भेद-प्रभेद तथा पारस्परिक अन्तर का कथन है । तत्पश्चात् पाँचों ज्ञानों का तारतम्य बतलाते हुए उनका विषय-निर्देश एवं उनकी सहचारिता का दिग्दर्शन कराया गया है। तदनन्तर मिथ्या-ज्ञानों का निर्देश है। अन्त में नय के भेदों का कथन है।
दूसरे अध्याय में जीव का स्वरूप, जीव के भेद, इन्द्रियभेद, मृत्यु और जन्म की स्थिति, जन्मस्थानों के भेद, शरीर के भेद, आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
तीसरे अध्याय में अधोलोक के विभाग, नारक जीवों की
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