Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन का साहित्य
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कर्ता कहे जाते हैं । इस प्रकार मूलग्रन्थकर्ता वर्धमान भट्टारक हैं, अनुग्रन्थकर्ता गौतम स्वामी हैं तथा उपग्रन्थकर्ता रागद्वेषमोहरहित भूतबलि-पुष्पदन्त मुनिवर हैं ।
षट्खण्डागम के प्रारम्भिक भाग सत्प्ररूपणा के प्रणेता आचार्य पुष्पदन्त हैं तथा शेष समस्त ग्रन्थ के रचयिता आचार्य भूतबलि हैं । धवलाकार ने पुष्पदन्तरचित जिन बीस सूत्रों का उल्लेख किया है वे सत्प्ररूपणा के बीस अधिकार ही हैं क्योंकि उन्होंने आगे स्पष्ट लिखा है कि भूतबलि ने द्रव्यप्रमाणानुगम से अपनी रचना प्रारम्भ की । सत्प्ररूपणा के बाद जहां से संख्याप्ररूपणा अर्थात् द्रव्यप्रमाणानुगम प्रारम्भ होता है वहाँ पर भी धवलाकार ने कहा है कि अब चौदह जीवसमासों के अस्तित्व को जान लेनेवाले शिष्यों को उन्हीं जीवसमासों के परिमाण के प्रतिबोधन के लिए भूतबलि आचार्य सूत्र करते हैं ।
आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि का समय विविध प्रमाणों के आधार पर वीर निर्वाण के ६००-७०० वर्ष के पश्चात् सिद्ध होता है ।
कर्म प्राभृत के छः खण्डों के नाम इस प्रकार हैं : १. जीवस्थान, २. क्षुद्रकबन्ध, ३ बन्धस्वामित्वविचय, ४. वेदना, ५. वर्गणा और ६. महाबन्ध |
जीवस्थान के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वार तथा नौ चूलिकाएं हैं। आठ अनुयोगद्वार इनसे सम्बद्ध हैं : १. सत्, २. संख्या ( द्रव्यप्रमाण ), ३. क्षेत्र, ४ स्पर्शन, ५. काल, ६. अन्तर, ७. भाव और ८. अल्पबहुत्व | नौ चूलिकाएँ ये हैं : १. प्रकृति - समुत्कीर्तन, २ स्थानसमुत्कीर्तन ३-५ प्रथम द्वितीय तृतीय महादण्डक, ६. उत्कृष्टस्थिति, ७ जघन्यस्थिति, ८. सम्यक्त्वीत्पत्ति और गति - आगति ।
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