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द्रव्य अध्ययन जया जोगे निलंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ। तया कम्म खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइणीरओ॥१४॥
जब साधक योगों का निरोध करके शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तब वह अपने समस्त कर्मों को क्षय करके रज-मुक्त बन कर सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। जब साधक समस्त कर्मों को क्षय करके रज-मुक्त होकर सिद्धि को प्राप्त कर लेता है, तब वह लोक के मस्तक पर स्थित होकर शाश्वत सिद्ध हो जाता है।
३. जीवाजीव के अस्तित्व की प्रज्ञा का प्ररूपण
जीव और अजीव पदार्थ नहीं हैं, ऐसी संज्ञा नहीं रखनी चाहिए, अपितु जीव और अजीव पदार्थ हैं, ऐसी संज्ञा (बुद्धि) रखनी चाहिए। द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव से उन जीवों और अजीवों की प्ररूपणा होती है।
जया कम्म खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ णीरओ। तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो भवइ सासओ॥१५॥
-दस.अ.४,गा.३४-४८ ३. जीवाजीवाणं अत्थित्तपण्णा परूवणं
णत्थि जीवा अजीवा वा,णेवं सन्नं निवेसए। अस्थि जीवा अजीवा वा, एवं सन्नं निवेसए॥१॥
-सूय.सु.२,अ.५, गाथा १३ दव्वओ खेत्तओ चेव कालओ भावओ तहा। परूवणा तेसिं भवे जीवाणमजीवाण य॥
-उत्त.अ.३६,गा.३ ४. दवियाणुओगस्स परूपण पगारा
दसविहे दवियाणुओगे पन्नत्ते, तं जहा१. दवियाणुओगे, २. माउयाणुओगे, ३. एगट्ठियाणुओगे, ४. करणाणुओगे, ५. अप्पिताणप्पिते, ६. भाविताभाविते, ७. बाहिरा-बाहिरे, ८. सासतासासते, ९. तधणाणे,
१०. अतधणाणे।
-ठाणं. अ.१०, सु.७२६ ५. दव्वाणुओगस्स उक्खेवो
तएणं समणे भगवं महावीरे तीसे य महइ महालियाए परिसाए, मुणि परिसाए, जइ परिसाए, देव परिसाए, अणेगसयाए, अणेगसयवंदाए, अणेगसयवंदपरिवाराए, सारयणवत्थणिय महुर गम्भीर कोंचणिग्घोस दुंदुभिस्सरे,
४. द्रव्यानुयोग के प्ररूपण-प्रकार
द्रव्यानुयोग (की प्ररूपणा के) दस प्रकार कहे गए हैं, यथा१. द्रव्यानुयोग
२. मातृकानुयोग ३. एकार्थिकानुयोग ४. करणानुयोग ५. अर्पितानर्पित
६. भाविताभावित ७. बाह्याबाह्य
८. शाश्वत-अशाश्वत ९. तथाज्ञान
१०. अतथाज्ञान
उरे वित्थडाए, कंठे वट्टियाए, सिरे समाइण्णाए, अगरलाए,अमम्मणाए, सुवत्तक्खरसण्णिवाइयाए पुण्णरत्ताए सव्वभासाणुगामिणीए, सरस्सईए, जोयण-णीहारिणा सरेणं, अद्धमागहाए भासाए धम्म परिकहेइ, सा वि य णं अद्धमागहा भासा तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं अप्पणो सभासाए परिणमेणं परिणमइतं जहा-अस्थि लोए, अस्थि अलोए।
५. द्रव्यानुयोग का उपोद्घात
उस समय श्रमण भगवान् महावीर ने अनेक सौ, अनेक सौ वृन्द, अनेक सौ वृन्दों के परिवार वाली उस महान् परिषदा में, मुनि परिषदा में, यति परिषदा में, देव परिषदा में, शरद ऋतु के नवीन मेघ के गर्जन जैसे, क्रौंच पक्षी तथा दुन्दुभि के घोष जैसी मधुर ध्वनि में हृदय में विस्तृत, कण्ठ में स्थित, मस्तिष्क में व्याप्त, अस्पष्ट उच्चारण रहित, हकलाहट रहित, व्यक्त अक्षरों के पूर्ण संयोजन सहित सर्वभाषानुगामिनी वाणी, जो योजन पर्यन्त सुनाई दे ऐसे स्वर से, अर्धमागधी भाषा में धर्म कहावह अर्धमागधी भाषा उन सब आर्य-अनार्य श्रोताओं की अपनी भाषा में परिणत हो गई। यथा-लोक का अस्तित्व है, अलोक का अस्तित्व है।
१. द्रव्यों के द्रव्यत्व की व्याख्या करना, २. उत्पाद आदि मातृकापदों के आधार से द्रव्यों की व्याख्या करना, ३. द्रव्यों के एकार्थक और पर्यायवाची शब्दों की व्याख्या करना, ४. द्रव्य की निष्पत्ति में साधकतम कारणों का विचार करना, ५. द्रव्य के मुख्य और गौण धर्मों का विचार करना,
६. द्रव्यांतर से प्रभावित और अप्रभावित होने का विचार करना. ७. एक द्रव्य से दूसरे द्रव्यकी भिन्नता अभिन्नता का विचार करना, ८. द्रव्यों के शाश्वत अशाश्वतता का विचार करना, ९. द्रव्यों के यथार्थ स्वरूप का विचार करना, १०. द्रव्यों के अयथार्थ स्वरूप का विचार करना।