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१.अपज्जत्तगा य,२.पज्जत्तगा य। तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते ण जाणंति, ण पासंति। तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते णं अत्थेगइया
जाणंति-पासंति, अत्थेगइया ण जाणंति,ण पासंति। प. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"अत्थेगइया जाणंति-पासंति, अत्थेगइया ण जाणंति,
ण पासंति?" उ. गोयमा ! पज्जत्तगा दुविहा पण्णत्ता,तं जहा
। द्रव्यानुयोग-(१)) १. अपर्याप्तक, २. पर्याप्तक। इनमें से जो अपर्याप्तक हैं वे नहीं जानते हैं, नहीं देखते हैं,
और जो पर्याप्तक हैं वे कई जानते-देखते हैं और कई नहीं
जानते हैं, नहीं देखते हैं। प्र. भन्ते ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि
"कई जानते-देखते हैं और कई नहीं जानते, नहीं
देखते हैं? उ. गौतम ! पर्याप्तक (सम्यग्दृष्टि) भी दो प्रकार के कहे गए
हैं, यथा१.अनुपयुक्त,२. उपयुक्त। इसमें जो अनुपयुक्त हैं वे नहीं जानते हैं, नहीं देखते हैं और जो उपयुक्त हैं वे जानते-देखते हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि“कितने ही (वैमानिक देव केवली के मन को) जानते-देखते
हैं और कितने ही नहीं जानते, नहीं देखते हैं।" १०७. केवली के साथ अणुत्तर देवों का संलाप
प्र. भन्ते ! क्या अनुत्तरौपपातिक देव अपने स्थान पर रहे हुए
ही यहां रहे हुए केवली के साथ आलाप और संलाप करने _ में समर्थ हैं ? उ. हां, गौतम ! समर्थ हैं। प्र. भन्ते ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि
"अनुत्तरौपपातिक देव अपने स्थान पर रहे हुए ही, यहां रहे हुए केवली के साथ आलाप और संलाप करने में समर्थ हैं ?"
१.अणुवउत्ता य, २.उवउत्ता य। तत्थ णं जे ते अणुवउत्ता ते ण जाणंति,ण पासंति। तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते जाणंति-पासंति। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"अत्थेगइया जाणंति-पासंति, अत्थेगइया ण जाणंति,
ण पासंति। -विया. स. ५, उ.४, सु. २९-३० १०७. केवलि सद्धिं अणुत्तर देवाणं संलायो
प. पभू णं भंते ! अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव
समाणा इहगएणं केवलिणा सद्धिं आलावं वा, संलावं
वा करेत्तए? उ. हंता, गोयमा ! पभू। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"पभू णं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा इहगएणं केवलिणा सद्धिं आलावं वा, संलावं वा
करेत्तए?" उ. गोयमा ! जं णं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव
समाणा अटुं वा, हेउं वा, पसिणं वा, कारणं वा, वागरणं वा पुच्छंति तं णं इहगए केवली अह्र वा जाव वागरणं वा वागरेइ। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"पभू णं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा इहगएणं केवलिणा सद्धिं आलावं वा, संलावं वा
करेत्तए।" प. जंणं भंते ! इहगए चेव केवली अट्ठ जाव वागरणं वा
वागरेइ तं णं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव
समाणा जाणंति पासंति? उ. हंता,जाणंति, पासंति। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"जं णं.इहगए चेव केवली अट्ठ वा जाव वागरणं वा वागरेइ तं णं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव
समाणा जाणंति पासंति?" उ. गोयमा ! तेसि णं देवाणं अणंताओ मणोदव्ववग्गणाओ
लद्धाओ पत्ताओ अभिसमन्नागयाओ भवंति। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ
उ. गौतम ! अनुत्तरौपापतिक देव अपने स्थान पर रहे हुए ही,
जिन अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों या व्याख्याओं को पूछते हैं, उन अर्थों यावत् व्याख्याओं का उत्तर यहाँ रहे हुए केवली देते हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"अनुत्तरौपपातिक देव अपने स्थान पर रहे हुए ही, यहां रहे हुए केवली के साथ आलाप और संलाप करने में समर्थ हैं।"
प्र. भन्ते ! केवली भगवान् यहां रहे हुए जिस अर्थ यावत् व्याख्या का उत्तर देते हैं, क्या उस उत्तर को वहां रहे हुए
अनुत्तरौपपातिक देव जानते-देखते हैं ? उ. हाँ, गौतम ! जानते-देखते हैं। प्र. भन्ते ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि
यहाँ रहे हुए केवली जिस अर्थ यावत् व्याख्या का उत्तर देते हैं, उस उत्तर को वहां रहे हुए ही अनुत्तरौपपातिक देव
जानते-देखते हैं?" उ. गौतम ! उन देवों को अनन्त मनोद्रव्य-वर्गणा लब्ध हैं, प्राप्त
हैं, सम्मुख की हुई हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि