Book Title: Dravyanuyoga Part 1
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj & Others
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 881
________________ ७७४ द्रव्यानुयोग-(१) १. तत्थ संतयं संतएणं उवमिज्जइ जहा-संता अरहता १. इनमें से जो सद् वस्तु को सद् वस्तु से उपमित किया जाता संतएहिं पुरवरेहिं संतएहि कवाडएहिं संतएहिं वच्छएहिं है, वह इस प्रकार है-सद्रूप अरिहन्त भगवन्तों के प्रशस्त उवमिज्जति,तं जहा वक्षस्थल को सद्प श्रेष्ठ नगरों के सत् कपाटों की उपमा देना, जैसेपुरवरकवाडवच्छा फलिहभुया दुंदभित्थणियघोसा। सभी चौबीस तीर्थकर (उत्तम) नगर के कपाटों के समान सिरिवच्छंकियवच्छा सव्वे वि जिणा चउव्वीसं ॥११९॥ वक्षस्थल, अर्गला के समान भुजाओं, देवदुन्दुभि या मेघ गर्जना के समान स्वर और श्रीवत्स से अंकित वक्षस्थल वाले होते हैं। २. संतयं असंतएणं उवमिज्जइ जहा-संताई नेरइय- २. विद्यमान पदार्थ को अविद्यमान पदार्थ से उपमित करना। तिरिक्खजोणिय-मणूस-देवाणं आउयाइं असंतएहिं जैसे नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों की विद्यमान आयु पलिओवम-सागरोवमेहिं उवमिज्जति। के प्रमाण को अविद्यमान पल्योपम और सागरोपम द्वारा बतलाना। ३. असंतयं संतएणं उवमिज्जइ जहा ३. असद्वस्तु को सद्वस्तु से उपमित करना। जैसे-सर्व प्रकार परिजूरियपेरंतं चलंतबेंट पडंत निच्छीरं। से जीर्ण, डंठल से टूटे, वृक्ष से नीचे गिरे हुए, निस्सार और पत्तं वसणप्पत्तं कालप्पत्तं भणइ गाहं ॥१२०॥ दुःखी ऐसे किसी गिरते हुए पुराने-जीर्ण पीले पत्ते ने वसंत समय प्राप्त नवोद्गत किसलयों-(कोपलों) से इस प्रकार कहाजह तुडभे तह अम्हे, तुम्हे वि य होहिया जहा अम्हे। इस समय जैसे तुम हो, हम भी पहले वैसे ही थे तथा इस अप्पाहेइ पडतं पंडुयपत्तं किसलयाणं ॥१२१॥ समय जैसे हम हो रहे हैं, वैसे ही आगे चलकर तुम भी हो जाओगे। णवि अस्थि णवि य होही, उल्लावो किसल-पंडुपत्ताणं। यहाँ जो जीर्ण पत्तों और किसलयों के वार्तालाप का उल्लेख उवमा खलु एस कया भवियजण विबोहणट्ठाए॥१२२ ॥ किया गया है, वह न तो कभी हुआ, न होता है और न होगा, किन्तु भव्य जनों के प्रतिबोध के लिए उपमा दी गई है। ४. असंतयं असंतएण उवमिज्जइ-जहा खरविसाणं तहा ४. अविद्यमान पदार्थ को अविद्यमान पदार्थ से उपमित करना। ससविसाणं। जैसे-खर विषाण है वैसे ही शश विषाण है और जैसे शशविषाण है वैसे ही खर विषाण है। से तं ओवम्मसंखा -अणु.सु. ४७७-४९२ यह औपम्यशंखा है। प. (६)से किं तं जाणणासंखा? प्र. (६) ज्ञानसंख्या क्या है? उ. जाणणासंखा-जो जं जाणइ,तंजहा उ. संख्या ज्ञाता-जो संख्या को जानता है उसे संख्या ज्ञाता कहते हैं, यथासदं सद्दिओ, गणियं गणिओ, निमित्तं नेमित्तिओ, शब्द को जानने वाला शाब्दिक, गणित को जानने वाला कालं कालनाणी, वेज्जो वेज्जियं गणितज्ञ, निमित्त को जानने वाला नैमित्तिक, काल को जानने वाला कालज्ञानी और वैद्यक को जानने वाला वैद्य। सेतं जाणणासंखा। -अणु.सु.४९६ यह ज्ञानसंख्या का स्वरूप है। प. (८) से किं तं भावसंखा? प. (८) भन्ते ! भावसंख्या क्या है? उ. भावसंखा-जे इमे जीवा संखगइनाम गोत्ताई कम्माई उ. इस लोक में जो जीव संख गति नाम गोत्र कर्मों का वेदन वेदेति। कर रहे हैं वे भाव संखा हैं। से तं भावसंखा, से तं संखप्पमाणे, से तं भावप्पमाणे, से यह भाव संखा है, यह संखप्रमाण है, यह भाव प्रमाण का तं पमाणे। -अणु.सु. ५२० वर्णन है, यह प्रमाण का वर्णन हुआ। १७६. वत्तव्वयासरूवं १७६. वक्तव्यता का स्वरूपप. से किं तं वत्तव्वया? प्र. वक्तव्यता क्या है? उ. वत्तव्वया-तिविहा पण्णत्ता,तं जहा उ. वक्तव्यता (कथन) तीन प्रकार की कही गई है, यथा१. ससमयवत्तव्यया, २. परसमयवत्तव्यया, १. स्वसमयवक्तव्यता, २. परसमयवक्तव्यता, ३. ससमयपरसमयवत्तव्वया। ३. स्वसमय-परसमयवक्तव्यता। १. १-५- परिमाण संख्या (सु. ४९३-४९५) श्रुत प्रकरण में देखें। २. २-७- गणणा संख्या (सु. ४९७-५१९) गणितानुयोग (परिशिष्ट) में देखें।

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