Book Title: Dravyanuyoga Part 1
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj & Others
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 892
________________ ज्ञान अध्ययन नाम-ठवणाओ पुव्वभणियाओ। दव्यसामाइए वि तहेच सेतं भवियसरीरदव्वसामाइए । प से किं तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरिते दव्वसामाइए ? उ. जाणयसरीरभविवसरीरवइरिते दव्यसामाइए पत्तयपोत्ययलिडियं सेतं जाणयसरीरभविवसरीरवइरित्ते दव्वसामाइए। सेतं नो आगमओ दव्वसामाइए। से तं दव्वसामाइए । X X प से किं तं भावसामाइए ? उ. भावसामाइए-दुविहे पण्णत्ते, तं जहा १. आगमओ य प. से किं तं आगमओ भावसामाइए ? उ. आगमओ भावसामाइए सामाइयपयत्याहिकार जाणए उवउत्ते। सेतं आगमओ भावसामाइए। १९०. भाव सामाइए समण सरूवं २. नो आगमओ य । - अणु. सु. ५९३-५९८ प से किं तं नो आगमओ भावसामाइए ? उ. नोआगमओ भावसामाइए जस्स सामाणिओ अच्या संजमे नियमे तये । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥ १२७ ॥ जो समोसव्वभू तसे थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ इइ केवलिभासियं ॥ १२८ ॥ हम पि दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ य समं मणती तेण सो समणो ॥ १२९ ॥ थिय से कोई बेसो पिओ व सव्धेसु चैव जीवेसु । एएण होइ समणो, एसो अन्नो वि पज्जाओ ॥ १३० ॥ १. उरग २. गिरि ३. जलण ४. सागर ५. नहतल ६. तरुगण समो य जो होइ । ७. भमर ८. मिग ९. धरणि, १०. जलरूह ११. रवि १२. पवण समो य सो समणो ॥ १३१ ॥ तो समणो जइ सुमणो, भावेण व जइ ण होइ पावमणो सयणे य जणे व संभो, समो व माणायमाणेसु ॥१३२ ।। सेतं नो आगमओ भावसामाइए। से तं भावसामाइए से तं सामाइए। सेतं नामनिप्फण्णे । - अणु. सु. ५९९ ७८५ नामसामायिक और स्थापनासामायिक पूर्ववत् है । द्रव्यसामायिक भी वैसे ही जानना चाहिए। यह भव्यशरीरद्रव्य सामायिक है। प्र. ज्ञायकशरीर भव्यशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्यसामायिक क्या है? उ पत्र में अथवा पुस्तक में लिखित सामायिक पद ज्ञायकशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य सामायिक है। यह ज्ञायकशरीर भव्यशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्य सामायिक है। यह नो आगमद्रव्यसामायिक है, यह द्रव्य सामायिक है। X X प्र. भावसामायिक क्या है ? उ. भावसामायिक दो प्रकार का कहा गया है, यथा १. आगमभावसामायिक, २ नो आगमभावसामायिक | प्र. आगमभावसामायिक क्या है ? उ. सामायिक पद के अर्वाधिकार का उपयोगयुक्त ज्ञापक आगम से भाव-सामायिक है। यह आगम भाव सामायिक है। १९०. भाव सामायिक में श्रमण का स्वरूपप्र. नो आगमभावसामायिक क्या है ? उ. नो आगमभाव सामयिक का स्वरूप इस प्रकार हैजिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में लीन है, उसके भाव सामायिक है, ऐसा केवली भगवान् का कथन है। जो सर्वभूतों- त्रस, स्थावर आदि प्राणियों के प्रति समभाव धारण करता है, उसके सामायिक है, ऐसा केवली भगवान् का कथन है। जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार सभी जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं है, ऐसा जानकर जो स्वयं किसी प्राणी का नहीं करता है, न दूसरों से करवाता है और न हनन की अनुमोदना करता है, किन्तु सभी जीवों को अपने समान मानता है, वही श्रमण कहलाता है। जिसको समस्त जीवों में से किसी भी जीव के प्रति न द्वेष है और न राग है, इस कारण से वह श्रमण होता है। यह भी प्रकारान्तर से श्रमण का अर्थ है। जो १. सर्प, २. गिरि, ३. अग्नि, ४. सागर, ५. आकाश-तल, ६. वृक्षसमूह, ७ भ्रमर, ८. मृग, ९. पृथ्वी, १०. कमल, ११. सूर्य और १२. पवन के समान है वह श्रमण है। श्रमण तभी सम्भवित है जब वह सुमन ( प्रशस्त मन) वाला हो और भावों से भी पापी मन वाला न हो। जो माता-पिता आदि स्थाजनों में एवं परजनों में समभावी हो एवं मान-अपमान में समभाव का धारक हो । यह नो आगमभाव सामायिक है। यह भाव सामायिक है, यह सामायिक है। यह नामनिष्पनिक्षेप है।

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