Book Title: Dravyanuyoga Part 1
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj & Others
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 894
________________ ज्ञान अध्ययन तो तत्थ णज्जिहितिं ससमयपयं वा, परसमयपयं वा बंधपयं वा, मोक्खपयं सामाइयपयं वाणो सामाइयपयं वा। तो तम्मि उच्चारिए समाणेके सिंचि भगवंताणं केइ अत्थाहिगारा अहिगया भवंति, के सिंचि य केइ अणहिगया भवंति, तओ तेसिं अणहिगयाणं अत्थाणं अभिगमणत्थाए पदेणं पदं वत्तइस्सामि ७८७ ) इस प्रकार से सूत्र का उच्चारण करने से ज्ञात होगा कि यह स्वसमयपद है, यह परसमयपद है, यह बंधपद है, यह मोक्षपद है, अथवा यह सामायिक-पद है, यह नो सामायिकपद है। सूत्र का निर्दोष विधि से उच्चारण किये जाने पर कितने ही साधु भगवन्तों को कितनेक अर्थाधिकार अधिगत (ज्ञात) हो जाते हैं। किन्हीं-किन्हीं को कितनेक अर्थाधिकार अनधिगत (अज्ञात) रहते हैं-अतएव उन अनधिगत अर्थों का अधिगम (प्राप्त) कराने के लिए एक-एक पद की प्ररूपणा करूँगा। जिसकी विधि इस प्रकार है१. संहिता, २. पदच्छेद, ३. पदों का अर्थ, ४. पदविग्रह, ५. चालना, ६. प्रसिद्धि । यह व्याख्या करने की विधि के छ प्रकार हैं। यह सूत्रस्पर्शिक नियुक्त्यनुगम है। यह निर्युक्त्यनुग्म है, यह अनुगम है। १.संहिता य २.पदं चेव,३. पदत्थो,४. पदविग्गहो। ५. चालणा य ६.पसिद्धी य, छव्विहं विद्धि लक्खणं ॥ से तं सुत्तप्फासियनिज्जुत्तिअणुगमे। से तं निज्जुत्तिअणुगमे।सेतं अणुगमे। -अणु.सु.६०५ १९५. नय अणुओगदारं प. से किं तं णए? उ. सत्त मूलणया पण्णत्ता, तं जहा १. णेगमे, २. संगहे, ३. ववहारे, ४. उज्जुसुए, ५.सद्दे, ६.समभिरूढे,७.एवंभूए। तत्थणेगेहिं माणेहिं मिणइ तत्ती णेगमस्स १ य निरुत्ती। सेसाणं पि नयाणं लक्खणमिणमो सुणह वोच्छं ॥ . संगहियपिंडियत्थं संगह २ वयणं समासओ बेति । वच्चइ विणिच्छियत्थं ववहारो ३ सव्वदव्वेसु ॥ १९५. नय अनुयोगद्वार प्र. नय क्या हैं? उ. मूलं नय सात प्रकार के कहे गए हैं, यथा १.नैगमनय,२. संग्रहनय, ३. व्यवहारनय, ४. ऋजुसूत्रनय, ५. शब्दनय, ६. समभिरूढनय, 9. एवंभूतनय। १. जो अनेक प्रमाणों से वस्तु को जानता है, जो अनेक भावों से वस्तु का निर्णय करता है, यह नैगमनय की निरुक्ति अर्थात् (व्युत्पत्ति) है। शेष नयों के लक्षण कहूँगा, जिसको तुम सुनो। २. सम्यक् प्रकार से गृहीत एक जाति के पदार्थ ही जिसका विषय है, यह संग्रहनय का वचन कहा जाता है। ३. व्यवहारनय सर्वद्रव्यों के विषय में विनिश्चय करने के निमित्त में प्रवृत्त होता है। ४. ऋजुसूत्रनय केवल वर्तमानकाल को ग्रहण करता है। ५. शब्दनय पदार्थ की विशेषता को ही ग्रहण करता है। ६.समभिरूढनय वस्तु से भिन्न को अवस्तु मानता है। ७. एवंभूतनय व्यञ्जन अर्थ एवं तदुभय को विशेष रूप से स्थापित करता है। इन नयों के द्वारा हेय और उपादेय का ज्ञान प्राप्त करके तदनुकूल प्रवृत्ति करनी चाहिए। इस प्रकार का जो उपदेश है वही नय कहलाता है। इन सभी नयों के परस्पर विरुद्ध कथन को सुनकर जो समस्त नयों से विशुद्ध सम्यक्त्व, चारित्र गुण में स्थित होता है वह साधु है। . यह नयों का स्वरूप है। पच्चुप्पन्नग्गाही उज्जुसुओ४ णयविही मुणेयव्यो। इच्छइ विसेसियतरं पच्चुप्पण्णं णओ सद्दो ५ ॥ वत्थुओ संकमणं होइ अवत्थु णये समभिरूढे ६ । वंजण-अत्थ-तदुभयं एवंभूओ७ विसेसेइ । णायम्मि गिण्हियव्वे अगिण्हियव्वम्मि चेव अथम्मि । जइयव्वमेव इइ जो उवएसो सो तओ नाम । सव्वेसि पि नयाणं बहुविहवत्तव्वयं निसामेत्ता । तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणट्ठिओ साहू ॥ से तं नए। -अणु.सु. ६०६ १. ठाणं.अ.७,सु.५५२

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