Book Title: Dravyanuyoga Part 1
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj & Others
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 828
________________ ज्ञान अध्ययन ७२१ एवं जाव अणंतपएसियं खंध। जहा परमाहोहिए तहा केवली वि। -विया.स.१८,उ.८,सु.१६-२३ १२७. निज्जरा पुग्गलाणं जाणण-पासण परवणंप. अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणो सव्वं कम्म वेएमाणस्स, सव्वं कम्मं निज्जरेमाणस्स, सव्वं मार मरमाणस्स, सव्वं सरीरं विप्पजहमाणस्स, चरिमं कम्म वेएमाणस्स, चरिमं कम्मं निज्जरेमाणस्स, चरिम मार मरमाणस्स, चरिमं सरीरं विप्पजहमाणस्स, मारणंतियं कम्मं वेएमाणस्स, मारणतिय कम्मं निज्जरेमाणस्स, मारणंतियं मारं मरमाणस्स, मारणंतियं सरीर विप्पजहमाणस्स जे चरिमा निज्जरापोग्गला सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता, समणाउसो ! सव्वं लोग पि य ते ओगाहित्ता णं चिट्ठति? उ. हंता, गोयमा ! अणगारस्स णं भावियप्पणो सव्वं कम्म वेएमाणस्स जाव जे चरिमा निज्जरापोग्गला सुहुमाणं ते पोग्गला पण्णत्ता, समणाउसो ! सव्वं लोग पिणं ते ओगाहित्ता णं चिट्ठति। प. छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से तेसिं निज्जरापोग्गलाणं किंचि आणत्तं वा, नाणत्तं वा, ओमत्तं वा, तुच्छत्तं वा, गरुयत्तं वा, लहुयत्तं वा जाणइ पासइ ? उ. गोयमा ! नो इणढे समठे। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ छउमत्थे णं मणुस्से तेसिं निज्जरापोग्गलाणं नो किंचि आणतं वा, नाणत्तं वा, ओमत्तं वा, तुच्छत्तं वा, गरुयत्तं वा, लहुयत्तं वा जाणइ पासइ? उ. गोयमा ! देवे वि य णं अत्थेगइए जे णं तेसिं निज्जरापोग्गलाणं नो किंचि आणत्तं वा, नाणत्तं वा, ओमत्तं वा, तुच्छत्तं वा, गुरुयत्तं वा, लहुयत्तं वा जाणइपासइ। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"छउमत्थे णं मणुस्से तेसिं निज्जरापोग्गलाणं नो किंचि आणत्तं वा, नाणत्तं वा, ओमत्तं वा, तुच्छत्तं वा, गरुयत्तं वा, लहुयत्तं वा जाणइ पासइ, सुहुमाणं ते पोग्गला पण्णत्ता, समणाउसो! सव्वलोग पि य णं ते ओगाहित्ता चिट्ठति। -पण्ण. प.१५, सु. ९९३-९९४ १२८. चउवीसदंडएसु आहारपोग्गल जाणणं-पासणं-आहारण परूवणंचप. दं.१.णेरइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हति ते किं जाणंति, पासंति, आहारैति? इसी प्रकार यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक कहना चाहिए। जिस प्रकार परमावधिज्ञानी के विषय में कहा है उसी प्रकार केवलज्ञानी के लिए भी कहना चाहिए। १२७. निर्जरा पुद्गलों का जानने देखने का प्ररूपण प्र. भन्ते ! भावितात्मा अणगार ने सभी कर्मों को वेदते हुए, सर्वकर्मों की निर्जरा करते हुए, समस्त मरणों से मरते हुए, सर्वशरीर को छोड़ते हुए तथा चरम कर्म को वेदते हुए, चरम कर्म की निर्जरा करते हुए, चरम मरण से मरते हुए, चरमशरीर को छोड़ते हुए, एवं मारणान्तिक कर्म को वेदते हुए, मारणांतिक कर्म की निर्जरा करते हुए, मारणान्तिक मरण से मरते हुए, मारणान्तिक शरीर को छोड़ते हुए जो चरमनिर्जरा के पुद्गल हैं, क्या वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं ? हे आयुष्मन् श्रमणप्रवर ! क्या वे पुद्गल समग्र लोक का अवगाहन करके रहे हुए हैं? उ. हाँ, गौतम ! पूर्वोक्त भावितात्मा अनगार सभी कर्मों को वेदते हुए यावत् वे चरम निर्जरा के पुद्गल सूक्ष्म कहे गये हैं और हे आयुष्मन् श्रमण ! वे पुद्गल समग्र लोक का अवगाहन करके रहे हुए हैं। प्र. भन्ते ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा पुद्गलों के अन्यत्व, , नानात्व, हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व या लघुत्व को जानता देखता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा पुद्गलों के अन्यत्व नानात्व हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व या लघुत्व को नहीं जानता देखता है? उ. गौतम ! कोई कोई देव भी उन निर्जरा पुद्गलों के अन्यत्व, नानात्व, हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व या लघुत्व को किंचित् भी नहीं जानता देखता है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है किछद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा पुद्गलों के अन्यत्व, नानात्व, हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व या लघुत्व को नहीं जानता देखता है क्योंकि हे आयुष्मन श्रमण! वे पुद्गल सूक्ष्म है और सम्पूर्ण लोक की अवगाहन करके स्थित है। १२८. चौबीस दण्डकों में आहार पुद्गलों को जानने-देखने और आहार करने का प्ररूपणप. द.१. भन्ते ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे उन्हें जानते हैं, देखते है और उनका आहार करते हैं? अथवा नहीं जानते हैं, नहीं देखते हैं, आहार करते है? उदाहुण जाणंति,ण पासंति, आहारेंति? १. विया. स. १८, उ. ३, सु. ८-९ (१)

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