Book Title: Dravyanuyoga Part 1
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj & Others
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 862
________________ ज्ञान अध्ययन उ. २. सत्त सरा णाभीओ, भवंति गीतं च रून्नजोणी यं । पादसमया उस्साया, तिण्णि य गीयरस आगारा ॥ ३. आइमिउ आरभंता, समुव्वहंता व मज्झगारमि । अवसाणे य खवेंता, तिण्णि य गेयस्स आगारा ॥ ४. छद्दोसे अट्ठ गुणे, तिण्णि य वित्ताई दो य भणिइओ जाहि सो गाहि, सुसिक्खिओ रंगमंचम्मि॥ ५. गेयस्स छद्दोसा १. भीयं, २. दुयं, ३. रहस्सं गायंतो मा य गाहिं, ४. उत्तालं ५. काकस्सरं ६ . अणुनासें च होंति गेयस्स छडोसा ॥ ६. अड्गुणा गेयस्स १. पुण्णं, २. रतंच. ३. अलंकियं च, ४. वत्तं तहा, ५. अविघुट्ठ, ६. मधुरं, ७. समं ८. सुललियं अट्ठ गुणा होंति गेयस्स ॥ ७. उर-कंठ-सिरविसुद्धं च गिच्चए मउय-रिभियपदबद्ध समताल पडुखेवं सत्तस्सरसीभरं गेयं ॥ " ८. निद्दोसं सारवंतं च, उत्तमलकियं । ७५५ उ. २. सातों स्वर नाभि से उत्पन्न होते हैं, रूदन गीत की योनि है। जितने समय में किसी छन्द का एक चरण गाया जाता है, उतना उसका उच्छ्वास काल होता है और उसके आकार तीन होते हैं। १. आदि (प्रारंभ ) में मृदु, २. मध्य में तीव्र, ३. अन्त में मंद, ४. गीत के छह दोष, आठ गुण, तीन वृत्त और दो भाणितियां (भाषाएँ होती है जो इन्हें जानता है ऐसा सुशिक्षित व्यक्ति ही इन्हें रंगमंच पर गा सकता है। ५. गीत के छह दोष १. भीत- भयभीत होते हुए गाना । २. द्रुत शीघ्रता से गाना। ३. ह्रस्वर - दीर्घ शब्दों को लघु बनाकर गाना । ४. उत्ताल - ताल (लय) के अनुसार न गाना। ५. काक स्वर - कौए की भांति कर्णकटु स्वर से गाना। ६. अनुनास- नाक से गाना। ये गीत के छः दोष हैं। ६. गीत के आठ गुण १. पूर्ण - आरोह अवरोह आदि स्वर कलाओं से परिपूर्ण होना। २. रक्त- राग से परिष्कृत होना । ३. अलंकृत - विभिन्न स्वरों से सुशोभित होना। ४. व्यक्त - स्पष्ट स्वर होना । ५. अविघुष्ट - नियत या नियमित स्वर युक्त होना । ६. मधुर-मधुर स्वरयुक्त होना। ७. सम - ताल, वीणा आदि का अनुगमन करना। ८. सुललित सहित रूपयुक्त होना। गीत के थे आठ गुण हैं। ७. गीत के चे आठ गुण और हैं १. उरोविशुद्ध - जो स्वर वक्ष स्थल में विशुद्ध हो । २. कण्ठविशुद्ध- जो स्वर कण्ठ में विशुद्ध हो । ३. शिरोविशुद्ध जो स्वर सिर से उत्पत्ति होने पर भी विशुद्ध हो । ४. मृदु-जो राग कोमल स्वर से गाया जाता है। ५. रिमित गोलना बहुत आलापों के द्वारा चमत्कार पैदा करना। ६. पदबद्ध - गीत को विशिष्ट पदरचना से निबद्ध करना । ७. समताल - पदोत्क्षेप जिसमें ताल वाद्य और नर्तक का वादक से सम हो (एक दूसरे से मिलते हों) ८. सप्तस्वरसीभर जिसमें सातों स्वर समान हों। ८. गीतपदों के आठ गुण इस प्रकार हैं१. निर्दोष बत्तीस दोष रहित होना, २. सारयत् विशिष्ट अर्थयुक्त होना, ३. हेतुयुक्त - अर्थसाधक हेतुयुक्त होना, ४. अलंकृत-काव्य के अलंकारों से युक्त होना,

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