Book Title: Dravyanuyoga Part 1
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj & Others
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 865
________________ ( ७५८ ७५८ १. तत्थ १. परिच्चायम्मि य २. तव-चरणे ३. सत्तुजणविणासे य। अणणुसय-धिइ परक्कमचिण्हो वीरो रसो होइ।. वीरो रसो जहासो णाम महावीरो जो रज्ज पयहिऊण पव्वइओ। काम-क्कोहमहासत्तुपक्खनिग्घायणं कुणइ॥ २. सिंगारो नाम रसो रइसंजोगाभिलाससंजणणो। मंडण-विलास-विब्बोय-हास-लीला-रमणलिंगो॥ सिंगारोरसोजहामहुरं विलासललियं हिययुम्मादणकर जुवाणाणं। सामा सदुद्दामं दाएई मेहलादामं ॥ ३. विम्हयकरो अपुव्वों व, भूयपुव्वो व जो रसो होइ। सो हास विसादुप्पत्तिलक्खणो अब्भूओनाम॥ . अब्भुओ रसा जहाअब्भुयतरमिह एत्तो अन्नं किं अस्थि जीवलोगम्मि। जंजिणवयणेणऽत्था तिकालजुत्ता विणज्जति॥ द्रव्यानुयोग-(१)) इन नव रसों में १. १. परित्याग करने में गर्व या पश्चात्ताप न होने, २. तपश्चरण में धैर्य, ३. शत्रुओं का विनाश करने में पराक्रम होने रूप लक्षण वाला वीररस है, . वीररस का बोधक उदाहरण इस प्रकार हैराज्य-वैभव का परित्याग करके जो दीक्षित हुआ और दीक्षित होकर काम-क्रोध आदि रूप महाशत्रुपक्ष का जिसने विघात किया, वही निश्चय से महावीर है। २. शृंगाररस-रति के कारणभूत साधनों के संयोग की अभिलाषा का जनक है तथा मंडन, विलास, विब्बोक, हास्य-लीला और रमण ये सब शृंगाररस के लक्षण हैं। शृंगाररस का बोधक उदाहरण इस प्रकार हैकामचेष्टाओं से मनोहर कोई श्यामा (सोलह वर्ष की तरुणी) क्षुद्र घंटिकाओं से मुखरित होने से मधुर व युवकों के हृदय को उन्मत्त करने वाले अपने कटिसूत्र का प्रदर्शन करती है। ३. पूर्व में कभी अनुभव में नहीं आये अथवा अनुभव में आये, किसी विस्मयकारी आश्चर्यकारक पदार्थ को देखकर जो आश्चर्य होता है, वह अद्भुतरस है। हर्ष और विषाद की उत्पत्ति अद्भुतरस का लक्षण है। अद्भुत रस का उदाहरण इस प्रकार हैइस जीव लोक में इससे अधिक विस्मय और क्या हो सकता है कि-"जिनवचन द्वारा त्रिकाल सम्बन्धी समस्त पदार्थ जान लिये जाते हैं।" ४. भयोत्पादक रूप, शब्द अथवा अंधकार में कल्पनाएं उत्पन्न होना तथा दर्शन आदि से रौद्ररस उत्पन्न होता है और संमोह, संभ्रम, विषाद एवं मरण उसके लक्षण हैं। रौद्र रस का उदाहरण इस प्रकार हैभृकुटियों से तेरा मुख विकराल बन गया है, तेरे दांत होठों को चबा रहे हैं, तेरा शरीर खून से लथपथ हो रहा है, तेरे मुख से भयानक शब्द निकल रहे हैं, तू राक्षस जैसा होकर पशुओं की हत्या कर रहा है। इसलिए अतिशय रौद्ररूपधारी तू साक्षात् रौद्ररस है। ५. विनय करने योग्य माता-पिता आदि गुरुजनों का विनय न करने से, गुप्त रहस्यों को प्रकट करने से तथा गुरुपली आदि के साथ मर्यादा का उल्लंघन करने से व्रीडनकरस उत्पन्न होता है। लज्जा और शंका उत्पन्न होना, इस रस के लक्षण हैं। व्रीडनक रस का उदाहरण इस प्रकार है(कोई वधू कहती है-इस लौकिक व्यवहार से अधिक लज्जास्पद अन्य बात क्या हो सकती है-मैं तो इससे बहुत लजाती हूँ, मुझे तो इससे बहुत लज्जा शर्म आती है कि वर वधू का प्रथम समागम होने पर गुरुजन-सास आदि वधू द्वारा पहने हुए वस्त्रों की प्रशंसा करते हैं। अशुचि-मल मूत्रादि, कुणप-शव मृत शरीर, दुदर्शन-लार आदि से व्याप्त घृणित शरीर को बार-बार देखने रूप अभ्यास से या उसकी गंध से बीभत्सरस उत्पन्न होता है। निर्वेद और अविहिंसा (त्याग) बीभत्सरस के लक्षण हैं। ४. भयजणणरूव-सदधकारचिंता कहासमुप्पन्नो। सम्मोह-संभम-विसाय-मरणलिंगो रसो रोद्दो॥ रोद्दो रसो जहाभिउडीविडंबियमुहा ! संदट्ठोट्ठ इय ! रुहिरमोकिण्ण। हणसि पसुं असुरणिभा ! भीमरसिय ! अतिरोद्द ! रोद्दो सि॥ ५. विणयोवयार-गुज्झ-गुरुदारमेरावतिक्कमुप्पण्णो। वेजणओ नाम रसो लज्जा संकाकरणलिंगो॥ वेलणओ रसो जहाकिं लोइयकरणीओ लज्जणियतरं ति लज्जिया होमो। वारिज्जम्मि गुरुजणो परिवंदइ जं वहूपोत्तं॥ ६. ६. असुइ कुणव दुर्दसणसंजोगब्भासगंधनिप्फण्णो। निव्वेय विहिंसालक्खणो रसो होइ बीभत्सो॥

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