________________
ज्ञान अध्ययन
२. मंकारे, ३. पिंकारे, ४. सेयंकारे ५. सायंकारे,
६. एगत्ते, ७. पुहत्ते, ८. संजूहे, ९. संकामिए,
१०. भिन्ने।
-ठाणं. अ.१०,सु.७४४ १३५. सोउजणाणं पगारा
१. सेलघण, २. कुडग, ३. चालिणी, ४. परिपुण्णग, ५.हंस, ६.महिस,७. मेसे य। ८. मसग, ९.जलूग, १०.विराली,११.जाहग, १२.गो, १३.भेरि, १४.आभीरी ॥
-नंदी.सु.५१
१३६. सोउजणाणं परिसदस्स पगारा
सा समासओ तिविहा पण्णत्ता,तं जहा
१.जाणिया,२.अजाणिया, ३. दुव्वियड्ढा।
- ७२५ ) २. मंकार अनुयोग-मकार के अर्थ.का विचार। ३. पिंकार अनुयोग-अपि के अर्थ का विचार। ४. सेयंकार अनुयोग-'से' अथवा “सेय" के अर्थ का विचार। ५. सायंकार अनुयोग-सायं आदि निपात शब्दों के अर्थ का
विचार। ६. एकत्व अनुयोग-एक वचन का विचार। ७. पृथक्त्व अनुयोग-बहुवचन का विचार। ८. संयूथ अनुयोग-समास का विचार। ९. संक्रामित अनुयोग-विभक्ति और वचन के संक्रमण का
विचार। १०. भिन्न अनुयोग-क्रमभेद, कालभेद आदि का विचार। १३५. श्रोताजनों के प्रकार
१. शैलघन-चिकना गोल पत्थर, २. कुटक-घड़ा, ३.चालनी-चलनी, ४. परिपूर्णक, ५. हंस, ६.महिष,७. मेष, ८. मशक, ९. जलौक-जौंक, १०. विडाली-बिल्ली, ११. जाहक (चूहे की जाति विशेष) १२. गौ, १३. भेरी,
१४. आभीरी (भीलनी) इसके समान श्रोताजन होते हैं। १३६. श्रोताजनों की परिषद् के प्रकार
सामान्य से बह परिषद् (श्रोताओं का समूह) तीन प्रकार की कही गई है, यथा१. ज्ञायिका-विज्ञपरिषद, २. अज्ञायिका-अविज्ञपरिषद् ३. दुर्विदग्धा परिषद्। १. ज्ञायिका परिषद् का लक्षण इस प्रकार है
जैसे उत्तम जाति के राजहंस पानी को छोड़कर दूध का पान करते हैं, वैसे ही गुणसम्पन्न श्रोता दोषों को छोड़कर गुणों को ग्रहण करते हैं। हे शिष्य ! इसे ही ज्ञायिका परिषद् (समझदारों का समूह) जानना चाहिए। २. अज्ञायिका परिषद का लक्षण इस प्रकार है
जो श्रोता मृग, शेर और कुक्कुट के अबोध शिशुओं के सदृश स्वभाव से मधुर भोले-भाले होते हैं, उन्हें जैसी शिक्षा दी जाए वे उसे ग्रहण कर लेते हैं वे (खान से निकले) रल की तरह असंस्कृत होते हैं। रलों को चाहे जैसा बनाया जा सकता है ऐसे ही अनभिज्ञ थोताओं में यथेष्ट संस्कार डाले जा सकते हैं। हे शिष्य ! ऐसे अबोध जनों के समूह को
अज्ञायिका परिषद् जानना चाहिए। ३. दुर्विदग्धा परिषद् का लक्षण इस प्रकार हैजिस प्रकार अल्पज्ञ पंडित ज्ञान में अपूर्ण होता है किन्तु अपमान के भय से किसी विद्वान् से कुछ पूछता नहीं है, फिर भी अपनी प्रशंसा सुनकर मिथ्याभिमान से बस्ति मशक की तरह फूला हुआ रहता है। हे शिष्य ! ऐसे लोगों के समूह को
दुर्विदग्धा परिषद् जानना चाहिए। १३७. चक्षुष्मानों के प्रकार
चक्षुष्मान् तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. एक चक्षु, २.द्विचक्षु, ३. त्रिचक्षु
१. जाणिया जहा
खीरमिव जहा हंसा, जे घुटंति इह गुरु-गुण-समिद्धा । दोसे अविवज्जति,ते जाणेह जाणियं परिसं ॥
२. अजाणिया जहा
जो होइ पगइमहुरा, मियछावय-सीह-कुक्कुडय-भुआ । रयणमिव असंठविया, अजाणिया सा भवे परिसा ॥
३. दुव्विअड्ढा जहा
न य कत्थई निम्माओ, न य पुच्छइ परिभवस्स दोसेणं। वस्थिव्व वायुपुण्णो, फुट्टइ गामिल्ल य दुविअड्ढो ।
-नंदो.सु.५२-५४
१३७. चक्खुमंताणं पगारा
तिविहे चक्खू पण्णत्ते,तं जहा१. एगचक्खू, २.बिचक्खू, ३.तिचक्खू,