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उ. गोयमा ! नो इणठे समठे। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"जहा णं केवली भासेज्ज वा, वागरेज्ज वा, नो तहा णं सिद्धे भासेज्ज वा, वागरेज्ज वा? उ. गोयमा ! केवली णं सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए
सपुरिसक्कार परक्कमे, सिद्धे णं अणुट्ठाणे जाव अपुरिसक्कारपरक्कमे। से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"जहा णं केवली भासेज्ज वा, वागरेज्ज वा, नो तहाणं सिद्धे भासेज्ज वा वागरेज्ज वा। प. केवली णं भंते ! उम्मिसेज्ज वा, निम्मिसेज्ज वा?
उ. हता, गोयमा ! उम्मिसेज्ज वा, निम्मिसेज्ज वा। प. जहाणं भंते ! केवली उम्मिसेज्ज वा निमिसेज्ज वा तहा
णं सिद्धे वि उम्मिसेज्ज वा निम्मिसेज्जवा?
द्रव्यानुयोग-(१) उ. गौतम ! यह शक्य नहीं हैं। प्र. भत्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"केवली बोलते हैं एवं प्रश्न का उत्तर देते हैं, किन्तु सिद्ध
भगवान् न बोलते हैं और न प्रश्न का उत्तर देते हैं ? उ. गौतम ! केवलज्ञानी उत्थान, कर्म, बल, वीर्य एवं
पुरुषकार-पराक्रम से सहित हैं, जबकि सिद्ध भगवान् उत्थान यावत् पुरुषकार-पराक्रम से रहित हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'केवलज्ञानी बोलते हैं एवं प्रश्न का उत्तर देते हैं, किन्तु सिद्ध
भगवान् न बोलते हैं और न प्रश्न का उत्तर देते हैं।' प्र. भन्ते ! केवलज्ञानी अपनी आंखें खोलते हैं अथवा बन्द
करते हैं? उ. हाँ गौतम ! वे आँखें खोलते हैं और बन्द करते हैं। प्र. भन्ते ! जिस प्रकार केवली आँखें खोलते हैं और बन्द करते
हैं, क्या उसी प्रकार सिद्ध भी आँखें खोलते हैं और बन्द
करते हैं? उ. गौतम ! यह शक्य नहीं है। शेष सम्पूर्ण वर्णन उपरोक्त सिद्ध
के बोलने आदि के आलापक के समान जान लेना चाहिए। इसी प्रकार अंगों को संकुचित करने और फैलाने सम्बन्धी आलापक जानना चाहिए। इसी प्रकार खड़े रहने, सोने और बैठने सम्बन्धी आलापक
भी जानना चाहिए। १०४. छद्मस्थ से केवलज्ञानी की विशेषता
दस पदार्थों को छद्मस्थ सम्पूर्ण रूप से न जानता है और न देखता है, यथा
१. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, ३. आकाशास्तिकाय, ४. शरीरमुक्तजीव, ५. परमाणुपुद्गल, ६. शब्द, ७. गन्ध,
८. वायु, ९. यह जिन होगा या नहीं होगा? १०. यह सभी दुःखों का अन्त करेगा या नहीं करेगा?
उ. गोयमा ! णो इणठे समठे । सेसं जहा वागरणं
आलायगो तहा उम्मिसेण वि अपरिसेसिओणेयव्यो। एवं आउट्टेज्ज वा, पसारेज्ज वा।
एवं ठाणं या, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेएज्जा।
-विया. स. १४, उ. १०, सु.७-११ १०४. छउमत्थेणं केवलणाणिस्स विसेसओ
दस ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं न जाणइ न पासइ, तं जहा
१. धम्मत्थिकायं, २. अधम्मत्थिकार्य, ३. आगासत्थिकाय, ४. जीवं असरीरपडिबद्ध, ५. परमाणुपोग्गलं', ६. सदं२, ७. गंध३,
८. वात, ९. अयं जिणे भविस्सइ वा, ण वा भविस्सइ, १०. अयं सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्सइ वा, न वा
करेस्सइ। एयाणि चेव उप्पन्न-नाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं जाणइ पासइ,तं जहा१. धम्मस्थिकार्य जाव १०. अयं सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्सइ वा, न वा करेस्सइ।
-ठाणं, अ.१०,सु.७५४ १०५. छउमत्थ-केवलिणं परिययो
सत्तहिं ठाणेहिं छउमत्थं जाणेज्जा,तं जहा१. पाणे अइवाएत्ता भवइ, २. मुसंवइत्ता भवइ,
किन्तु उत्पन्न ज्ञान-दर्शन को धारण करने वाले अर्हत् जिन केवली इनको सम्पूर्ण रूप से जानते देखते हैं, यथा१. धर्मास्तिकाय, यावत् १०. यह सभी दुःखों का अन्त करेगा या नहीं।
१०५. छद्मस्थ और केवली का परिचय
सात हेतुओं से छद्मस्थ जाना जाता है, यथा१. जो प्राणों का अतिपात करता है, २. जो मृषा बोलता है,
१. ठाणं. अ. ५, सु. ४५० २. ठाणं. अ. ६, सु. ४७८ .
५. विया. स. ८, उ. २, सु. २०-२१
३. ठाणं. अ.७, सु. ५६७ ४. ठाणं. अ.८, सु. ६१०