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ज्ञान अध्ययन
"जं णं इहगए चेव केवली अटुं वा जाव वागरणं वा वागरेइ तं णं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगइया चेव
समाणा जाणंति पासंति। -विया. स. ५, उ.४, सु.३१-३२ १०८. केवलिणो अस्सिं सेयकालंसि ओगाहणा सामत्थं
प. केवली णं भंते ! अस्सिं समयंसि जेसु आगासपएसेसु
हत्थं वा पायं वा बाहं वा उरूं वा ओगाहित्ताणं चिट्ठइ। पभू णं भंते ! केवली सेयकालंसि वि तेसु चेव आगासपएसेसु हत्थं वा जाव उरूं वा ओगाहित्ताणं चिट्ठित्तए? उ. गोयमा ! णो इणढे समठे। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"केवली णं अस्सिं समयसि जेसु आगासपएसेसु हत्थं वा जाव उरूं वा चिट्ठइ, नो णं पभू केवली सेयकालसि वि तेसु चेव आगासपएसेसु हत्थं वा जाव उरू वा
ओगाहित्ताणं चिट्ठित्तए? उ. गोयमा ! केवलिस्स णं वीरियसजोगसद्दव्वयाए चलाई
उवगरणाई भवंति, चलोवगरणट्ठयाए य णं केवली अस्सिं समयसि जेसु आगासपएसेसु हत्थं वा जाव उरूं वा चिट्ठइ णो णं पभू केवली सेयकालंसि वि तेसु चेव आगासपएसेसु हत्थं वा जाव उरूं वा ओगाहित्ताणं चिट्ठित्तए। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"केवली णं अस्सिं समयंसि जेसु आगासपएसेसु हत्थं वा जाव उरूं वा ओगाहित्ताणं चिट्ठित्तए। णो णं पभू केवली सेयकालंसि वि तेसु चेव आगासपएसेसु हत्थं वा जाव उरूं वा ओगाहित्ताणं चिट्ठित्तए।
-विया.स.५, उ.४,सु.३५ ११२. केवलिस्स दस अणुत्तरा
केवलिस्स णं दस अणुत्तरा पण्णत्ता,तं जहा१. अणुत्तरेणाणे, २. अणुत्तरे दंसणे, ३. अणुत्तरे चरित्ते, ४. अणुत्तरे तवे, ५. अणुत्तरे वीरिए, ६. अणुत्तरा खंती
६८५ "यहाँ रहे हुए केवली जिस अर्थ यावत् व्याख्या का उत्तर देते हैं, उस उत्तर को वहां रहे हुए ही अनुत्तरौपपातिक देव
जानते-देखते हैं।" १०८. केवली का वर्तमान भविष्यकालीन अवगाहन सामर्थ्य
प्र. भन्ते केवली इस समय में जिन आकाश प्रदेशों पर अपने
हाथ, पैर, बाहू और उरू को अवगाहित करके रहते हैं, तो भंते ! क्या भविष्यत्काल में भी वे उन्हीं आकाश-प्रदेशों पर अपने हाथ यावत् उरू आदि को अवगाहित करके रह
सकते हैं? उ. गौतम ! यह शक्य नहीं है। प्र. भन्ते किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"केवली इस समय में जिन आकाशप्रदेशों पर अपने हाथ यावत् उरू को अवगाहित करके रहते हैं, वे उन्हीं आकाशप्रदेशों पर भविष्यकाल में अपने हाथ यावत् उरू को
अवगाहित करके रहने में समर्थ नहीं है?" उ. गौतम ! केवली का जीवद्रव्य वीर्यप्रधान योग वाला होता है,
इससे उनके हाथ आदि उपकरण चलायमान होते हैं, हाथ यावत् उरू के चलित होते रहने से वर्तमान समय में जिन आकाशप्रदेशों में केवली अपने हाथ यावत् उरू अवगाहित करके रहे हुए हैं उन्हीं आकाशप्रदेशों पर भविष्यत्काल में वे हाथ यावत् उरू को अवगाहित करके नहीं रह सकते। इस कारण से गौतम ऐसा कहा जाता है कि"केवली इस समय में जिन आकाशप्रदेशों पर अपने हाथ यावत् उरू को अवगाहित करके रहते हैं, वे उन्हीं आकाशप्रदेशों पर भविष्यकाल में अपने हाथ यावत् उरू को अवगाहित करके नहीं रह सकते।
१०९. केवली के दश अनुत्तर
केवली के दस अनुत्तर कहे गए हैं, यथा१. अनुत्तर ज्ञान, २. अनुत्तर दर्शन, ३. अनुत्तर चारित्र, ४. अनुत्तर तप ५. अनुत्तर वीर्य (शक्ति) ६. अनुत्तर क्षान्ति
(क्रोध क्षय) ७. अनुत्तर मुक्ति (निर्लोभता) ८. अनुत्तर आर्जव, ९. अनुत्तर मार्दव, १०. अनुत्तर लाघव
७. अणुत्तरा मुत्ती, ८. अणुत्तरे अज्जवे, ९. अणुत्तरे मद्दवे, १०. अणुत्तरे लाघवे।
__-ठाणं. अ.१०, सु.७६३ ११३. पंच णाणाणं उप्पाय हेउ परूवणं
दोहिं ठाणेहिं आया केवलं आभिणिबोहियणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहा१. सोच्चा चेव
२. अभिसमेच्च चेव। दोहिं ठाणेहिं आया केवलं सुयणाणं उप्पाडेज्जा,तं जहा
११०. पांच ज्ञानों की उत्पत्ति के हेतुओं का प्ररूपण
इन दो स्थानों से आत्मा विशुद्ध आभिनिबोधिक ज्ञान को उत्पन्न करता है, यथा१. सुनने से,
२. जानने से। इन दो स्थानों से आत्मा विशुद्ध श्रुतज्ञान को उत्पन्न करता है, यथा१. सुनने से,
२. जानने से।
१. सोच्चा
चेव,
२. अभिसमेच्च चेव।