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ज्ञान अध्ययन
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प. सुयनाणस्स णं भन्ते ! केवइए विसए पण्णत्ते? उ. गोयमा ! से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते,तं जहा
१. दव्वओ,२.खेत्तओ,३. कालओ,४.भावओ। दव्वओणं सुयनाणी उवउत्ते सव्वदव्वाइं जाणइ पासइ।
एवं खेत्तओ सबंखेत्तं, कालओ सव्वंकालं, भावओ उवउत्ते सव्वं भावं जाणइ पासइ। xx xx
XX प. ओहिनाणस्स णं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते? उ. गोयमा ! से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते,तं जहा
१.दव्वओ, २. खेत्तओ, ३. कालओ, ४. भावओ। १. तत्थ दव्वओ णं ओहिनाणी जहण्णेणं अणंताणि रूविदव्वाई जाणइ. पासइ, उक्कोसेणं सव्वाइं रूविदव्वाई जाणइ पासइ। २. खेत्तओ णं ओहिनाणी जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं खेत्तं जाणइ पासइ, उक्कोसेणं अलोए लोयमेत्ताई असंखेज्जाइं खंडाई जाणइ पासइ। ३. कालओ णं ओहिनाणी जहण्णेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं जाणइ पासइ, उक्कोसेणं असंखेज्जाओ ओसप्पिणीओ उस्सप्पिणीओ अतीतं च अणागतं च कालं जाणइ पासइ। ४. भावओणं ओहिनाणी जहण्णेणं अणंते भावे जाणइ पासइ, उक्कोसेण वि अणते भावे जाणइ पासइ, सव्वभावाणमणंतभागं जाणइ पासइ२।
प्र. भन्ते ! श्रुतज्ञान का विषय कितना कहा गया है? उ. गौतम ! वह संक्षेप में चार प्रकार का कहा गया है, यथा
१. द्रव्य से, २. क्षेत्र से, ३. काल से, ४. भाव से। द्रव्य से उपयोगयुक्त श्रुतज्ञानी सर्वद्रव्यों को जानता और देखता है। इसी प्रकार क्षेत्र से सर्वक्षेत्र को, काल से सर्वकाल को और भाव से सर्वभावों को जानता-देखता है। xx
xx प्र. भन्ते ! अवधिज्ञान का विषय कितना कहा गया है? उ. गौतम ! वह संक्षेप में चार प्रकार का कहा गया है, यथा
१.द्रव्य से, २. क्षेत्र से, ३. काल से, ४. भाव से १. द्रव्य से-अवधिज्ञानी जघन्य (कम से कम) अनन्त रूपी द्रव्यों को जानता देखता है। उत्कृष्ट समस्त रूपी द्रव्यों को जानता-देखता है। २. क्षेत्र से-अवधिज्ञानी जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र को जानता देखता है। उत्कृष्ट अलोक में लोक जितने असंख्य खण्डों को जानता-देखता है। ३. काल से-अवधिज्ञानी जघन्य एक आवलिका के असंख्यातवें भाग काल को जानता-देखता है। उत्कृष्ट अतीत और अनागत असंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी परिमाण काल को जानता-देखता है। ४. भाव से-अवधिज्ञानी जघन्य अनन्त भावों को जानता-देखता है और उत्कृष्ट भी अनन्त भावों को जानता देखता है। किन्तु सर्व भावों के अनन्तवें भाग को ही जानता देखता है।
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xx प. मणपज्जवनाणस्स णं भंते ! केवइए विस, पण्णत्ते? उ. गोयमा ! से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते,तं जहा
१.दव्वओ,२.खेत्तओ, ३.कालओ, ४.भावओ। १. तत्थ दव्वओ णं उज्जुमई अणंते अणंतपएसिए खंधे जाणइ पासइ, ते चेव विउलमई अब्भहियतराए विउलतराए, विशुद्धतराए, वितिमिरतराए जाणइ पासइ। २. खेत्तओ णं उज्जुमई जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिम हेट्ठिल्लाई खुड्डागपयराई, उड्ढे जाव जोइसस्स उवरिमतले, तिरियं जाव अंतोमणुस्सखित्ते अड्ढाइज्जेसु दीव-समुद्देसु पण्णरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पण्णाए अंतरदीवगेसु सण्णीपंचेंदियाणं पज्जत्तगाणं मणोगए भावे जाणइ पासइ, तं चैव विउलमई अड्ढाइज्जेहिं अंगुलेहिं अब्भहियतरागं विउलतरागं विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं खेत्तं जाणइ पासइ।
प्र. भन्ते ! मनःपर्यवज्ञान का विषय कितना कहा गया है? उ. गौतम ! वह संक्षेप में चार प्रकार का कहा गया है, यथा
१. द्रव्य से, २. क्षेत्र से, ३. काल से, ४. भाव से। १. द्रव्य से-ऋजुमति अनन्त अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध को (सामान्य रूप से) जानता व देखता है रूप से और विपुलमति उन्हीं स्कन्धों को अधिक, विपुल, विशुद्ध और स्पष्ट जानता-देखता है। २. क्षेत्र से-ऋजुमति जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट नीचे इस रत्नप्रभा पृथ्वी के उपरितन-अधस्तन क्षुल्लक प्रतर को, ऊँचे ज्योतिषचक्र के उपरितल पर्यन्त
और तिरछे लोक में मनुष्य क्षेत्र के अन्दर अढाई द्वीप समुद्र पर्यन्त, पन्द्रह कर्मभूमियों, तीस अकर्मभूमियों और छप्पन अन्तरद्वीपों में वर्तमान संज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के मनोगत भावों को जानता-देखता है और उन्हीं क्षेत्रों को विपुलमति अढाई अंगुल अधिक विपुल, विशुद्ध और स्पष्ट क्षेत्र को जानता-देखता है।
१. नंदी., सु.११४
२. नंदी., सु.२५