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अण्णयाकयाए सुनाहिं तयावरा
खए कडे भवइ, से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए, केवलं बोहिं बुज्झेज्जा जाव केवलनाणं उप्पाडेज्जा। तस्स णं छठंछठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढे बाहाओ पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स पगइभद्दयाए पगइउवसंतयाए पगइपयणुकोह-माण-माया-लोभयाए मिउमद्दवसंपन्नयाए अल्लीणताए भद्दताए विणीतताए अण्णयाकयाए सुभेण अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोह-मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स विभंगे नामं अन्नाणे समुप्पज्जइ, से णं तेणं विभंगनाणेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं. उक्कोसेणं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साइं जाणइ पासइ, से णं तेणं विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जीवे वि जाणइ, अजीवे वि जाणइ, पासंडत्थे सारंभे सपरिग्गहे संकिलिस्समाणे वि जाणइ, विसुज्झमाणे वि जाणइ,
खओवरसुज्झमाणीवसाणेणं विणीतता
करेमाणस्स
से णं पुव्वामेव सम्मत्तं पडिवज्जइ, सम्मत्तं पडिवज्जित्ता समणधम्म रोएइ, समणधम्मं रोएत्ता चरित्तं पडिवज्जइ, चरित्तं पडिवज्जित्ता लिंग पडिवज्जइ, तस्स णं तेहिं मिच्छत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेहिं परिहायमाणेहिं सम्मदसणपज्जवेहिं परिवड्ढमाणेहिं परिवड्ढमाणेहिं से विभंगे अन्नाणे सम्मत्तपरिग्गहिए खिप्पामेव ओही परावत्तइ।
द्रव्यानुयोग-(१) केवलि यावत् केवलिपाक्षिक उपासिका से बिना सुने ही धर्म श्रवण का लाभ प्राप्त कर सकता है, शुद्ध बोधि लाभ का अनुभव कर सकता है यावत् केवलज्ञान उत्पन्न कर सकता है। निरन्तर छठ-छठ का तपःकर्म करते हुए सूर्य के सम्मुख बाहें ऊंची करके आतापना भूमि में आतापना लेते हुए उस जीव की प्रकृति-भद्रता से, प्रकृति की उपशान्तता से, स्वाभाविक रूप से ही क्रोध, मान, माया और लोभ की अत्यन्त मन्दता होने से, अत्यन्त मृदुत्वसम्पन्नता से, कामभोगों में अनासक्ति से, भद्रता और विनीतता से किसी समय शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम, विशुद्ध लेश्या एवं तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए विभंग नामक अज्ञान उत्पन्न होता है। फिर वह उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान द्वारा जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट असंख्यात हजार योजन तक जानता देखता है। वह उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान से जीवों को भी जानता है और अजीवों को भी जानता है। वह सारम्भी, सपरिग्रही और संक्लेश पाते हुए पाषण्डस्थ जीवों को भी जानता है और विशुद्ध होते हुए पाषण्डस्थ जीवों को भी जानता है। तत्पश्चात् वह सर्वप्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करता है, सम्यक्त्व प्राप्त करके श्रमणधर्म पर रुचि करता है, श्रमणधर्म पर रुचि करके चारित्र अंगीकार करता है, चारित्र अंगीकार करके लिंग श्रमण वेश स्वीकार करता है। जिसमें उसके मिथ्यात्व के पर्याय क्रमशः क्षीण होते-होते
और सम्यग्-दर्शन के पर्याय क्रमशः बढ़ते-बढ़ते पूर्ण सम्यक्त्व युक्त हो जाने पर वह विभंग नामक अज्ञान, सम्यक्त्व के कारण शीघ्र ही अवधिज्ञान के रूप में परिवर्तित
हो जाता है। प्र. भन्ते ! उस अवधिज्ञानी के कितनी लेश्याएँ होती हैं ? उ. गौतम ! उसके तीन विशुद्ध लेश्याएँ होती हैं, यथा
१. तेजोलेश्या, २. पद्मलेश्या,
३. शुक्ललेश्या। प्र. भन्ते ! उसके कितने ज्ञान होते हैं ? उ. गौतम ! उसके तीन ज्ञान होते हैं, १. आभिनिबोधिकज्ञान,
२. श्रुतज्ञान, ३. अवधिज्ञान। प्र. भन्ते ! वह सयोगी होता है या अयोगी होता है ? उ. गौतम ! वह सयोगी होता है, अयोगी नहीं होता है। प्र. भन्ते ! यदि वह सयोगी होता है, तो क्या मनोयोगी होता है,
वचनयोगी होता है या काययोगी होता है ? उ. गौतम ! वह मनोयोगी होता है, वचनयोगी होता है और
काययोगी भी होता है। प्र. भन्ते ! वह साकारोपयोग-युक्त होता है या अनाकारोपयोग
युक्त होता है?
प. से णं भंते ! कइसु लेस्सासु होज्जा? उ. गोयमा ! तिसु विसुद्धलेस्सासु होज्जा,तं जहा
१. तेउलेस्साए, २. पम्हलेस्साए, ___३. सुक्कलेस्साए। प. से णं भंते ! कइसु णाणेसु होज्जा? उ. गोयमा ! तिसु, १. आभिणिबोहियनाणं, २. सुयणाण
३.ओहिनाणेसु होज्जा। प. से णं भंते ! किं सजोगी होज्जा, अजोगी होज्जा? उ. गोयमा ! सजोगी होज्जा, नो अजोगी होज्जा। प. जइ णं भंते ! सजोगी होज्जा किं मणजोगी होज्जा,
वइजोगी होज्जा, कायजोगी होज्जा? उ. गोयमा ! मणजोगी वा होज्जा, वइजोगी वा होज्जा,
कायजोगी वा होज्जा। प. से णं भंते ! किं सागारोवउत्ते होज्जा, अणागारोवउत्ते
होज्जा?