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ज्ञान अध्ययन
११२. बोहि- संजम णाणान य उवलद्धि हेउ पत्रवर्ण
दोहिं ठाणेहिं आया केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए, तं जहा१. खएण चेव,
२. उवसमेण चैव ।
दोहिं ठाणेहिं आया एवमेव केवलं बोहिं बुज्झेज्जा, केवलं मुंडे भविता अगाराओ अणगारियं पव्वज्जा, केवलं बंभचेरवासमावसेज्जा, केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, केवलमाभिणिबोहियणाणं उप्पाडेजा, केवल सुयणाणं उप्पाडेज्जा, केवलं ओहिणाणं उप्पाडेज्जा, केवल मणपजवणार्ण उच्चाज्जा,
- ठाणं. अ.२, सु. १०९
११३. पंचविह णाणाणं उवसंहारो
एयं पंचविहं नाणं, दव्वाण य गुणाण य । पज्जवान च सव्वेसि नाणं नाणीहि देखियं ॥
११४. अण्णाणाणं भेवपमेय परूवणं
प. अण्णाणे णं भंते! कहिविहे पण्णत्ते ? उ. गोयमा तिविहे पण्णत्ते, तं जहा
- उत्त. अ. २८, गा. ५
१. मइ अण्णाणे, २. सुयअण्णाणे, ३. विभंगणाणे ।
प से किं तं मइअण्णाणे ?
उ. मइ अण्णाणे चउयि पण्णले तं जहा
१. उग्गहो, २. ईहा, ३ . अवाय, ४. धारणा । प. से किं तं उग्गहे ?
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उ. उग्गहे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा१. अयोग् य २. बंजणोग्गहे व
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एवं जहेब आभिणिबोहिनाणं तहेव णेयव्यं ।
वरं एगट्ठियवज्जं जाय नो इंदिय धारणा ।
सेतं धारणा से तं मइ अण्णाणे |
प से किं तं सुय अण्णाणे ?
उ. सुयअण्णाणे जं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छद्दिट्टिएहिं
सच्छंदबुद्धि मइ विगप्पियं, तं जहा
भारहं जाय चत्तारि वेदा संगोवंगा।
तं सुअण्णा ।
प. ले किं तं विभंगणाणे ?
उ. विभंगणाणे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहागामसंठिए जाव संन्निवेससंठिए
दीवसठिए, समुद्दसंठिए बाससठिए वासहरसाँठिए, पव्ययसठिए रुक्खसंठिए यूभसंठिए हयसठिए. गयसंठिए, नरसंठिए, किन्नरसंठिए, किंपुरिससंठिए, महोरगसंठिए, गंधव्वसंठिए, उसभसंठिए, पसु पसय विहग वानर णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते ।
-विया. स. ८, उ. २, सु. २४-२८
११२. बोधि, संयम एवं ज्ञानों की उत्पत्ति के हेतु का प्ररूपणदो स्थानों से आत्मा केवली प्रज्ञप्त धर्म को सुन पाता है, यथा
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१. कर्मपुद्गलों के क्षय से, २. कर्म पुद्गलों के उपशम से। इसी प्रकार दो स्थानों से आत्मा विशुद्ध बोधि का अनुभव करता है। मुंड होकर घर छोड़कर सम्पूर्ण अनगारता में प्रव्रजित होता है। सम्पूर्ण ब्रह्मचर्यवास को प्राप्त होता है, सम्पूर्ण संयम के द्वारा संयत होता है। सम्पूर्ण संवर के द्वारा संवृत होता है, विशुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान को उत्पन्न करता है। विशुद्ध श्रुतज्ञान को उत्पन्न करता है, विशुद्ध अवधिज्ञान को उत्पन्न करता है। विशुद्ध मनः पर्यवज्ञान को उत्पन्न करता है।
११३. पांच प्रकार के ज्ञानों का उपसंहार
यह पांच प्रकार के ज्ञान सर्व द्रव्यों, गुणों और पर्यायों के अवबोधक हैं ऐसा ज्ञानी पुरुषों ने बताया है।
११४. अज्ञानों के भेद-प्रभेदों का प्ररूपण
प्र. भन्ते ! अज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है ? उ. गौतम ! अज्ञान तीन प्रकार का कहा गया है, यथा१. मतिअज्ञान, २. श्रुत- अज्ञान, ३. विभंगज्ञान । प्र. मति- अज्ञान कितने प्रकार का है ?
उ. मति- अज्ञान चार प्रकार का कहा गया है, यथा१. अवग्रह, २. ईहा, ३ . अवाय, ४. धारणा । प्र. अवग्रह कितने प्रकार का है ?
उ. अवग्रह दो प्रकार का कहा गया है, यथा१. अर्थावग्रह, २. व्यंजनावग्रह |
जिस प्रकार आभिनिवोधिकज्ञान के विषय में कहा है, उसी प्रकार यहां भी धारणा तक सम्पूर्ण वर्णन जान लेना चाहिए। विशेष-आभिबोधिकज्ञान में जो एकार्थिक शब्द कहे हैं उन्हें छोड़कर यह नोहन्द्रिय धारणा है, पर्यन्त कहना चाहिए।
यह धारणा का स्वरूप है। यह मति- अज्ञान का स्वरूप है। प्र. श्रुत- अज्ञान क्या है ?
उ. जो अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों द्वारा स्वच्छंद बुद्धि एवं स्वमति से कल्पित है वह श्रुत-अज्ञान है, यथा
महाभारत यावत् सांगोपांग चार वेद ।
यह श्रुत- अज्ञान का वर्णन है। प्र. विभंगज्ञान कितने प्रकार का है ?
उ. विभंगज्ञान अनेक प्रकार का कहा गया है, यथाग्रामसंस्थित पायत् सन्निवेशसंस्थित।
द्वीपसंस्थित, समुद्रसंस्थित, वर्ष-संस्थित, वर्षधरसंस्थित, पर्वत संस्थित, वृक्षसंस्थित, स्तूपसंस्थित हयसंस्थित, गजसंस्थित, नरसंस्थित, किन्नरसंस्थित, किम्पुरुषसंस्थित, महोरगसंस्थित, गन्धर्वसंस्थित, वृषभसंस्थित, पशु, पशय (दो खुर वाले जंगली जानवर) विहग और वानर के आकार वाला है। इस प्रकार विभंगज्ञान नाना संस्थान से संस्थित कहा गया है।