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आहार अध्ययन
विउट्टति, ते जीवा तेसिं णाणाविहाणं तस थावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव वणस्सइ सरीरं जाव सब्वप्पणाए आहार आहारेंति। अवरे वि यणं तस थावरजोणियाणं अगणीणं सरीराणाणावण्णा जाव भवंतीति मक्खायं। सेसा तिण्णि आलावगा जहा उदगाणं। अहावर पुरक्खायं इहेगइया सत्ता नाणाविहजोणिया जाव कम्मणिदाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहाणं तस थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा वाउक्कायत्ताए विउटैंति जहा अगणीणं तहा भाणियव्वा चत्तारि गमा।
अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता णाणाविहजोणिया जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहाणं तस थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा पुढवित्ताए, सक्करत्ताए वालुयत्ताए, इमाओ गाहाओ अणुगंतव्वाओपुढवी य सक्करा वालुगा य, उवले सिला य लोणूसे। अय तउय तंब सीसग, रुप्प सुवण्णे य वइरे य ॥१॥
हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजण पवाले। अब्भपडलऽभवालुय बादरकाए मणिविहाणार ॥ गोमेज्जए य रुयए अंके फलिहे य लोहियक्खे य । मरगय मसारगल्ले भुयमोयग इंदणीले यं ॥३॥
३९१ उत्पन्न होते हैं, वे जीव उन विभिन्न प्रकार के त्रस स्थावर प्राणियों के रस का आहार करते हैं तथा पृथ्वी यावत् वनस्पति के शरीरों का यावत् सर्वात्मना आहार कर लेते हैं। इसके अतिरिक्त उन त्रस स्थावरयोनिक अग्निकायों के नाना वर्णादि वाले शरीर होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकरदेव ने कहा है। शेष तीन आलापक उदकजीवों के समान जानना चाहिए। . इसके पश्चात् यह वर्णन है कि-इस संसार में नाना प्रकार की योनि वाले अपने पूर्वकृत कर्म के प्रभाव से अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त या अचित्त शरीरों में वायुकाय के रूप में उत्पन्न होते हैं। शेष वर्णन चार आलापकों के द्वारा अग्निकाय के समान कहना चाहिए। इसके पश्चात् यह वर्णन है कि-इस संसार में कितने ही जीव नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होकर उनमें अपने किये हुए कर्म प्रभाव से अनेक प्रकार के त्रस स्थावर प्राणियों के सचित्त या अचित्त शरीरों में पृथ्वी के रूप में शर्करा (ककर) के रूप में या बालू आदि के रूप में उत्पन्न होते हैं। इस विषय में इन गाथाओं के अनुसार जानना चाहिएपृथ्वी, शर्करा, (कंकर) बालू (रेत) उपल (पत्थर) शिला (चट्टान), नमक, लोहा, रांगा (कथीर), तांबा, शीशा, चांदी, सोना और वज्र (हीरा) तथाहड़ताल, हींगलू, मनसिल, सासक, अंजन, प्रवाल (मूंगा) अभ्रपटल (अभ्रक) अभ्रबालुका ये सब बादर पृथ्वीकाय के भेद हैं। मणियों के नाम इस प्रकार हैं- १. गोमेदक रल, २. रुचक रल, ३. अंकरत्न, ४. स्फटिकरल, ५. लोहिताक्षरल, ६. मरकतरल, ७. मसागरगल्लरल, ८. भुजपरिमोचकरल तथा ९. इन्द्रनीलमणि। चन्दन, गेरुक, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, चन्द्रप्रभ, वैडूर्य, जलकान्त एवं सूर्यकान्त। इन गाथाओं में सूर्यकांत पर्यन्त जो मणिरल आदि कहे गए हैं,उन में वे जीव उत्पन्न होते हैं। (उस समय) वे जीव अनेक प्रकार के त्रस स्थावर प्राणियों के रस का आहार करते हैं, वे जीव पृथ्वी यावत् वनस्पति शरीरों का आहार करते हैं यावत् सर्वात्मना आहार कर लेते हैं। इसके अतिरिक्त उन त्रस स्थावरों में उत्पन्न पृथ्वी से सूर्यकान्तमणि पर्यन्त प्राणियों के अन्य शरीर भी नाना वर्णादि वाले होते हैं यावत् उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकरदेव ने कहा है। शेष तीन आलापक जलकायिक जीवों के समान समझ लेन
चाहिए। ३३. सामान्यतःसर्वजीवों के आहार और उनकीयतनाका प्ररूपण
इसके पश्चात् यह वर्णन है कि-सर्व प्राणी, सर्वभूत, सर्वजीव और सर्वसत्व नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं, वहीं स्थित रहते हैं, वहीं वृद्धि पाते हैं, वे शरीर से ही उत्पन्न होते हैं, शरीर में ही रहते हैं, तथा शरीर में ही बढ़ते हैं एवं ये शरीर का ही आहार करते हैं, वे अपने-अपने कर्म का अनुसरण करते हैं, कर्म ही उस-उस योनि में उनकी उत्पत्ति का प्रधान कारण होता है उनकी गति और स्थिति भी कर्म के अनुसार ही होती है। वे कर्म के अनुसार विभिन्न पर्यायों को प्राप्त करते हैं।
चंदण गेरुय हंसगब्भ पुलए सोगंधिए य बोधव्वे। चंदप्पभ वेरुलिए जलकंते सूरकते य ॥४॥ एयाओ एएसु भाणियब्बाओ गाहासु (गाहाओ) जाव सूरकतत्ताए विउटैति, ते जीवा तेसिं णाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव वणस्सइ सरीरं जाव सब्बप्पणाए आहार आहारेंति। अवरे वियणं तेसिं तस थावरजोणियाणं पुढवीणं जाव सूरकताणं सरीराणाणावण्णा जाव भवंतीति मक्खाय।
सेसा तिण्णि आलावगा जहा उदगाणं।
-सुय. सु२, अ. ३, सु.७३९-७४५ ३३. ओहेण सव्वजीवाणं आहारं तेसिं जयणा य परूवणं
अहावर पुरक्खायं सव्वेपाणा, सव्वे भूया, सब्बे जीवा, सब्वे सत्ता, नाणाविहजोणिया नाणाविहसंभवा, नाणाविहवक्कमा, सरीरजोणिया सरीरसंभवा सरीरवक्कमा सरीराहारा कम्मोवगा कम्मनिदाणा कम्मगइया कम्मट्ठिइया कम्मुणा चेव विपरियामुवेंति।