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योग अध्ययन
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७. जोगकरण भेया चउवीसदंडएसुय परूवणंतिविहे जोग करणे पण्णत्ते,तं जहामनकरणे, २. वइकरणे, ३. कायकरणे। एवं णेरईयाणं विगलिंदियवज्जाणं जाव वेमाणियाणं।
-ठाणं. अ.३, उ.१, सु. १३२-३ ८. चउवीसदंडएसु समविसमजोगि परूवणंप. दं.१. दो भंते ! नेरइया पढमसमयोववन्नगा किं समजोगी
विसमजोगी? उ. गोयमा ! सिय समजोगी, सिय विसमजोगी।
प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ -
"सिय समजोगी, सिय विसमजोगी?" उ. गोयमा ! आहारयाओ वा से अणाहारए, अणाहारयाओ
वा से आहारए, सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिय अब्भहिए।
७. योगकरण के भेद और चौबीस दंडकों में प्ररूपण
योगकरण तीन प्रकार का कहा गया है, यथा१. मनःकरण, २. वचनकरण, ३. कायकरण। इसी प्रकार विकलेन्द्रियों को छोड़कर नारकों से वैमानिकों पर्यन्त
तीनों ही करण होते हैं। ८. चौबीस दण्डकों में समयोगी विषमयोगित्व का प्ररूपणप्र. दं.१. भन्ते ! प्रथम समय में उत्पन्न दो नैरयिक समयोगी होते
हैं या विषमयोगी होते हैं ? उ. गौतम ! कदाचित् समयोगी होते हैं और कदाचित् विषमयोगी
होते हैं। प भन्ते ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि
'कदाचित् समयोगी होते हैं और कदाचित् विषमयोगी होते हैं।" उ. गौतम ! आहारक नारक से अनाहारक नारक और
अनाहारक नारक से आहारक नारक, कदाचित् हीनयोगी, कदाचित् तुल्ययोगी और कदाचित् अधिकयोगी होता है। यदि वह हीनयोग वाला होता है तो असंख्यातवां भाग हीन, संख्यातवां भाग हीन, संख्यातगुण हीन या असंख्यातगुण हीन होता है। यदि अधिक योग वाला होता है तो असंख्यातवा भाग अधिक, संख्यातवाँ भाग अधिक, संख्यातगुण अधिक या असंख्यातगुण अधिक होता है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"कदाचित् समयोगी होते हैं और कदाचित् विषमयोगी होते हैं।" द. २-२४. इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त कहना चाहिए।
जइ हीणे असंखेज्जइभागहीणे वा, संखेज्जइभागहीणे वा, संखेज्जगुणहीणे वा, असंखेज्जगुणहीणे वा।
अह अब्भहिए असंखेज्जइभागमभहिए वा, संखेज्जभागमब्भहिए वा, संखेज्जगुणमब्भहिए वा, असंखेज्जगुणमब्भहिए वा। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"सिय समजोगी, सिय विसमजोगी।" दं.२-२४. एवं जाव वेमाणियाणं।
-विया.स.२५,उ.१.सु.६-७ मणस्स भेयचउक्कंप. कइविहे णं भंते ! मणे पण्णत्ते? उ. गोयमा ! चउव्विहे मणे पण्णत्ते,तं जहा१. सच्चे,
२. मोसे, ३. सच्चामोसे, ४. असच्चामोसे।
-विया.स.१३, उ.७,सु.१४ १०. मणस्स अण्णत्तत्त परूवणं
प. आया भंते ! मणे? अण्णे मणे? उ. गोयमा ! नो आया मणे,अण्णे मणे।
-विया. स.१३, उ.७सु.१० ११. मणस्स रूवित्त परूवणं
प. रूविं भंते ! मणे? अरूविं मणे? उ. गोयमा ! रूविं मणे, नो अरूविं मणे।
-विया.स.१३, उ.७,सु.११(१) १२. मणस्स अचित्तत्त परूवणं
प. सचित्ते भंते ! मणे? अचित्ते मणे?
९. मन के चार भेद
प्र. भन्ते ! मन कितने प्रकार का कहा गया है? उ. गौतम ! मन चार प्रकार का कहा गया है, यथा१. सत्यमन,
२. असत्यमन, ३. सत्यमृषामन, ४. असत्यामृषामन।
१०. मन के अनात्मत्व का प्ररूपण
प्र. भन्ते ! मन आत्मा है या अन्य है? उ. गौतम ! मन आत्मा नहीं है किन्तु अन्य है।
११. मन के रूपित्व का प्ररूपण
प्र. भन्ते ! मन रूपी है या अरूपी है? उ. गौतम ! मन रूपी है, अरूपी नहीं है।
१२. मन के अचित्तत्व का प्ररूपण
प्र. भंते ! मन सचित्त है या अचित्त है?