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१ इंदियउवचय २ णिव्वत्तणा य ३ समया भवे असंखेज्जा।
४ लद्धी ५ उवओगद्धा ६ अप्पाबहुए विसेसाहिया॥ ७ ओगाहणा ८ अवाए ९ ईहा १० तह वंजणोग्गहे चेव।
११ दव्विंदिया १२ भाविंदिय तीया बद्धा पुरेक्खडिया॥
-पण्ण. प.१५, उ.२ सु. १००६
१परिणाम २ वण्ण ३ रस ४ गंध ५ सुद्ध ६अपसत्थ७-८ संकिलिट्ठण्हा। ९ गति १० परिणाम ११-१२ पदेसावगाह १३ वग्गण १४-१५ ठाणाणमप्पबहु॥
-पण्ण.प.१७,उ.४ सु.१२१८
१जीव २-३ गतिंदिय ४ काए ५ जोगे ६ वेदे ७ कसाय ८ लेस्सा य। ९ सम्मत्त १० णाण ११ दंसण १२ संजय १३ उवओग १४ आहारे॥ १५ भासग १६ परित्त १७ पज्जत्त १८ सुहुम १९ सण्णी २०-२१ भवऽत्थि। २२ चरिमे य एएसिं तु पदाणं कायठिई होइ णायव्वा ॥
-पण्ण.प.१८, सु. १२५९ १णेरइय अंतकिरिया २ अणंतरं ३ एगसमय ४ उव्वट्टा। ५ तित्थगर ६ चक्कि ७ बल ८ वासुदेव ९ मंडलिय १० रयणा य॥ -पण्ण.प.२० सु. १४०६
द्रव्यानुयोग-(१) १.इन्द्रियोपचय,२.(इन्द्रिय) निर्वर्तना, ३.निर्वर्तना के असंख्यात समय, ४. लब्धि, ५. उपयोगकाल, ६. अल्पबहुत्व में विशेषाधिक, ७. अवग्रह, ८. अवाय, ९. ईहा, १०. व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह, ११. अतीत बद्ध पुरस्कृत द्रव्येन्द्रिय, १२. भावेन्द्रिय (इन बारह द्वारों के माध्यम से इन्द्रिय पद के द्वितीय उदेशक में इन्द्रिय संबंधी प्ररूपणा की गई है)। १. परिणाम, २. वर्ण, ३. रस, ४. गन्ध, ५. शुद्ध (अशुद्ध),६. अप्रशस्त (प्रशस्त),७. संक्लिष्ट (असंक्लिष्ट),८. उष्ण (शीत), ९. गति, १०. परिणाम, ११. प्रदेश, १२. अवगाह, १३. वर्गणा, १४. स्थान और १५. अल्पबहुत्व। (इन पन्द्रह द्वारों के माध्यम से लेश्या पद के चतुर्थ उद्देशक में लेश्या संबंधी वर्णन किया है। १. जीव, २. गति, ३. इन्द्रिय, ४. काय, ५. योग, ६. वेद, ७. कषाय, ८. लेश्या, ९. सम्यक्त्व, १०. ज्ञान, ११. दर्शन, १२. संयत, १३. उपयोग, १४. आहार, १५. भाषक, १६. परीत, १७. पर्याप्त, १८. सूक्ष्म, १९. संज्ञी, २०. भवसिद्धिक,२१. अस्तिकाय
और २२. चरम ( इन बावीस द्वारों के माध्यम से कायस्थिति संबंधी प्ररूपणा की गई है) १. नैरयिकों की अन्तक्रिया, २. अनन्तरागत जीव की अन्तक्रिया, ३. एक समय में अन्तक्रिया, ४. उद्वर्तना (जीवों की) उत्पत्ति, ५. तीर्थंकर, ६. चक्रवर्ती, ७. बलदेव, ८. वासुदेव, ९. माण्डलिक, १०. रल (इन दस द्वारों का अन्त क्रिया पद में वर्णन किया गया है) १. भेद, २. विषय, ३. संस्थान, ४. आभ्यन्तर-बाह्य, ५. देशावधि, ६.अवधि का क्षय और वृद्धि, ७.प्रतिपाती अप्रतिपाती। (इन सात द्वारों के माध्यम से प्रज्ञापना सूत्र के अवधिज्ञान पद में अवधिज्ञान का वर्णन है) १. अनन्तरागत आहार, २. आहारभोगता आदि ३. पुद्गलों को नहीं जानते, ४. अध्यवसान, ५. सम्यक्त्व का अभिगम, ६. काय, स्पर्श, रूप, शब्द और मन से सम्बन्धित परिचारणा और ७. अन्त में काय स्पर्श रूप, शब्द और मन से परिचारणा करने वालों का अल्पबहुत्व, (इन सात द्वारों का प्रज्ञापना सूत्र के
परिचारणा पद में वर्णन किया गया है)। ४६. अनुयोगद्वार का उपसंहार
अनुयोगद्वार सूत्र की कुल मिलाकर सोलह सौ चार (१६०४) गाथाएं हैं तथा दो हजार (२०००) अनुष्टुप छन्दों का परिमाण है। जैसे महानगर के मुख्य-मुख्य चार द्वार होते हैं उसी प्रकार इस श्री मद् अनुयोगद्वार सूत्र के भी उपक्रम आदि चार द्वार हैं। इस सूत्र में अक्षर, बिन्दु और मात्रायें जो लिखी गई हैं, वे सब दुःखों के क्षय करने के लिये ही हैं।
१भेद २ विसय ३ संठाणे ४ अभिंतर-बाहिरे य ५ देसोही।
६ओहिस्स य खय वुड्ढी ७पडिवाई चेवऽपडिवाइ॥
-पण्ण.प.३३, सु.१९८१
१.अणंतरागयआहारे २ आहाराभोगणाइ य। ३. पोग्गला नेव जाणंति ४ अज्झवसाणा य आहिया। ५. सम्मत्तस्स अभिगमे तत्तो ६ परियारणा य बोद्धव्या।
७.काए फासे रूवे सद्दे य मणे य अप्पबहु॥
-पण्ण.प.३४,सु.२०३२
४६. अणुओगद्दारस्स उवसंहारो
सोलससयाणि चउरुत्तराणि, गाहाण जाण सव्वग्गं। दुसहस्समणुढुभछंदवित्तपरिमाणओ भणियं ॥
नगरमहादारा इव कम्मद्दाराणुओगवरदारा। अक्खर-बिंदु मत्ता लिहिया, दुक्खक्खयट्ठाए॥
-अणु.सु.६०६