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१७. पोरिसिमंडलं, १८. मंडलप्पवेसो, १९. विज्जाचरणविणिच्छओ, २०. गणिविज्जा, २१. झाणविभत्ती, २२. मरणविभत्ती, २३. आयविसोही, २४. वीयरागसुयं, २५. संलेहणासुयं, २६. विहारकप्पो, २७. चरणविही, २८. आउरपच्चक्खाणं, २९. महापच्चक्खाणं एवमाइ। से तं उक्कालियं।
-नंदी.सु.८३ ३९. दसवेआलिय सुत्तस्स बिइय चुलिआ गाहा
चूलियं तु पवक्खामि, सुयं केवलिभासियं।
जं सुणेत्तु सपुण्णाणं धम्मे उप्पज्जई मई॥ -दस. चू. २ गा.१ ४०. जीवाजीवाभिगमसुयस्स उक्खेवो
इह खलु जिणमयं जिणाणुमयं जिणाणुलोमं जिणप्पणीयं जिणपरूवियं, जिणक्खायं जिणाणुचिन्नं जिणपण्णत्तं जिणदेसियं जिणपसत्थं अणुव्वीइयं तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोएमाणा थेरा भगवंतो जीवाजीवाभिगम णाममज्झयणं पण्णवइंसु।
-जीवा पडि. १, सु.१ ४१. तइया पडिवत्तिए बीइए उद्देसस्स संगहणी गाहाओ
पुढविं ओगाहित्ता नरगा संठाणमेव बाहल्लं। विक्वंभपरिक्खेवे वण्णो गंधो य फासो य॥१॥
द्रव्यानुयोग-(१) १७. पौरुषीमण्डल, १८. मण्डलप्रवेश, . १९. विद्याचरणविनिश्चय, २०. गणिविद्या, २१. ध्यानविभक्ति, २२. मरणविभक्ति, २३. आत्मविशुद्धि, २४. वीतरागश्रुत, २५. संलेखणाश्रुत, २६. विहारकल्प, २७. चरणविधि, २८. आतुरप्रत्याख्यान, २९: महाप्रत्याख्यान इत्यादि।
यह उत्कालिक श्रुत का वर्णन है। ३९. दशवैकालिक सूत्र की द्वितीय चूलिका की गाथा
मैं उस चूलिका को कहूँगा जो श्रुत रूप है और केवली भाषित है,
जिसे सुन कर पुण्यशाली जीवों की धर्म में श्रद्धा उत्पन्न होती है। ४०. जीवाजीवाभिगम सूत्र का उपोद्घात
इस जिन प्रवचन में जो जिनानुमत, जिनानुकूल, जिन प्रणीत, जिन प्ररूपित, जिन कथित, जिन आचरित, जिन प्रज्ञप्त, जिन देशित
और जिन प्रशस्त है, उसका विचार कर उस पर श्रद्धा करते हुए, प्रतीति करते हुए, रुचि करते हुए स्थविर भगवन्तों ने जीवाजीवाभिगम नाम का
अध्ययन कहा है। ४१. तृतीय प्रतिपत्ति के द्वितीय उद्देशक की संग्रहणी गाथाएं
पृथ्वियों की संख्या, कितने क्षेत्र में नरकवास हैं, नारकों के संस्थान, तदनन्तर मोटाई, विष्कम्भ, परिक्षेप, (लम्बाई-चौड़ाई
और परिधि) वर्ण, गन्ध, स्पर्श, नरकों की विस्तीर्णता बताने हेतु देव की उपमा, जीव और पुद्गलों की व्युत्क्रान्ति शाश्वत-अशाश्वत प्ररूपणा, उपपात (कहां से आकर जन्म लेते हैं) परिमाण (एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं) आहार, उच्चत्त, नारकों के संहनन, संस्थान, वर्ण, गन्ध, स्पर्श, उच्छ्वास, आहार, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग, समुद्घात, भूख-प्यास, विकुर्वणा, वेदना, भय, पांच महापुरुषों का सप्तम पृथ्वी में उपपात, द्विविध वेदना (उष्णवेदना, शीतवेदना) स्थिति, उद्वर्तना, पृथ्वी का स्पर्श और सर्वजीवों का उपपात,
इन विषयों की ये संग्रहणी गाथाएं हैं। ४२. वेद की अपेक्षा द्वितीय प्रतिपत्ति की उपसंहार गाथा
तीन वेदरूप दूसरी प्रतिपत्ति में प्रथम अधिकार भेदविषयक है, इसके बाद स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व का वर्णन है। तत्पश्चात् वेदों की बंधस्थिति तथा वेदों का अनुभाव किस
प्रकार का है यह वर्णन किया गया है। ४३. प्रज्ञापना सूत्र का उपोद्घात
भव्यजनों को निर्वृत्ति मार्ग की ओर प्रेरित करने वाले जिनेश्वर भगवान् ने श्रुत रूप रत्नों की निधि एवं सर्वभावों को प्ररूपित करने वाले प्रज्ञापना सूत्र का कथन किया है।
तेसिं महालयाए उवमा, देवेण होइ कायव्वा। जीवा य पोग्गला वक्कमति तह सासया निरया ॥२॥ उववायपरीमाणं अवारुच्चत्तमेव संघयणं। संठाण वण्ण गंधा फासा ऊसासमाहारे ॥३॥
लेसा दिट्ठी नाणे जोगुवओगे तहा समुग्धाया। तत्तो खुहा पिवासा विउव्वणा वेयणा य भए॥४॥ उववाओ पुरिसाणं ओवम्म वेयणाए दुविहाए। उव्वट्टण पुढवी उ उववाओ सव्वजीवाणं ॥५॥
एयाओ संगहणीगाहाओ।
-जीवा. पडि.३,सु.९४ ४२. वेय विवक्खया दुविह पडिवत्तिस्स उवसंहार गाहा
तिविहेसु होइ भेयो, ठिई य संचिट्ठणंतरप्पबहुं। वेदाण य बंधठिई वेओ तह किंपगारो उ॥
-जीवा. पडि. २, सु.६४
४३. पण्णवणासुत्तस्स उक्खेवो
सुयरयणनिहाणं जिणवरेण भवियजणणिव्युइकरेण। उवदंसिया भगवया पण्णवणा सव्वभावाणं ॥१॥