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ज्ञान अध्ययन
पज्जवसंखा जाव अणुओगदारसंखा, पाहुडसंखा, पाहुडियासंखा, पाहुड-पाहुडियासंखा, वत्युसंखा, पुव्वसंखा। से तं दिट्ठिवायसुयपरिमाणसंखा।से तं परिमाणसंखा।
-अणु. सु. ४९३-४९५ ८0. बंभीलिवीए माउक्खर संखाबंभीएणं लिवीए छायालीसं माउयक्खरा पण्णत्ता।
-सम.सम.४६, सु.२ ८१. सुयस्स पठणविही
१. मूर्य, २. हुंकारं वा, ३. बाढंकार,
- ६६१) पर्यवसंख्या यावत् अनुयोगद्वारसंख्या, प्राभृतसंख्या, प्राभृतिकासंख्या, प्राभृत-प्राभृतिकासंख्या, वस्तुसंख्या और पूर्वसंख्या। यह दृष्टिवादश्रुतपरिमाणसंख्या है। यह परिमाणसंख्या का
कथन है। ८०. ब्राह्मी लिपि के मातृकाक्षरों की संख्या
ब्राह्मी लिपि के मातृकाक्षर छियालीस कहे गए हैं।
४. पडिपुच्छइ, ५. वीमंसा, ६. तत्तो पसंगपारायणं च, ७. परिणि? सत्तमए॥
१. सुत्तत्थो खलु पढमो, २. बीओ णिज्जुत्तिमीसिओ भणिओ,
३. तइओ य णिरवसेसो एस विही होइ अणुओगे।
८१. श्रुतज्ञान की पढ़ने की विधि
१. शिष्य मौन रहकर सुने, २. फिर हुंकार - "जी हाँ" ऐसा कहे। ३. उसके बाद बाढंकार अर्थात् “यह ऐसे ही है जैसा गुरुदेव
फरमाते हैं" इस प्रकार श्रद्धापूर्वक माने। ४. बाद में यदि शंका हो तो पूछे कि- "यह किस प्रकार है?" ५. फिर विचार विमर्श करे। ६. तब उत्तरोत्तर गुणप्रसंग से शिष्य पारगामी हो जाता है। ७. बाद में वह चिन्तन-मनन आदि से गुरुवत् भाषण और शास्त्र
की प्ररूपणा करे।
ये सात गुण शास्त्र सुनने के कहे गए हैं। १. प्रथम वाचना में सूत्र और अर्थ कहा जाता है। २. दूसरी वाचना में सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति का कथन किया.
जाता है। ३. तीसरी वाचना में नय-निक्षेप आदि से पूर्ण व्याख्या की
जाती है। इस तरह अनुयोग सूत्र देने की विधि शास्त्रकारों ने प्रतिपादित की है। यह अंगप्रविष्ट का वर्णन है। यह श्रुत का वर्णन है। यह
परोक्षज्ञान का वर्णन है। ८२. आगम शास्त्र ग्राहक के आठ गुण
बुद्धि के जिन आठ गुणों से आगम शास्त्रों का अध्ययन एवं श्रुतज्ञान का लाभ देखा गया है, उन्हें पूर्व विशारद एवं धीर आचार्य इस प्रकार कहते हैंवे आठ गुण ये हैं१. विनययुक्त शिष्य गुरु के मुखारविन्द से निकले हुए वचनों को
सुनना चाहता है। २. जब शंका होती है तब पुनः विनम्र होकर गुरु को प्रसन्न करता
हुआ पूछता है। ३. गुरु के द्वारा कहे जाने पर सम्यक् प्रकार से श्रवण करता है। ४. सुनकर उसके अर्थ को ग्रहण करता है। ५. ग्रहण करने के अनंतर पूर्वापर अविरोध से पर्यालोचन
करता है, ६. तत्पश्चात् “यह ऐसे ही है जैसा गुरुजी फरमाते हैं," यह
मानता है,
सेतं अंगपविजें,सेतं सुयणाणं,सेतं परोक्खणाणं।
-नंदी. सु. १२० ८२. सुयस्स गाहगस्स अट्ठगुणा
आगमसत्थग्गहणं जं बुद्धिगुणेहिं अट्ठहिं दिळं। बिंति सुयणाणलंभं,तं पुव्वविसारया धीरा ॥८४ ॥
१. सुस्सुसइ,
· २. पडिपुच्छइ,
३. सुणेइ, ४. गिण्हइ य, ५. ईहए याऽवि तत्तो
६. अपोहए वा,