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ज्ञान अध्ययन
सेतं परंपरसिद्ध केवलनाणं ।
सेतं सिद्धकेवलनाणं ।
अह सव्यदव्य परिणाम भाव-विण्णत्तिकारणमणत । सासयमप्पडिवाई, एगविहं केवलं नाणं ॥
केवलनाणेणऽत्थे, नाउं जे तत्थ पण्णवणजोग्गे । ते भासइतित्यय, वडजोगसुअं हवइ सेसं ॥
सेतं केवलनाणं । सेतं नोइन्दियपच्यक्।
१००. केवलिणो नाणे विसिट्ठत्तं
पं. केवली णं भंते! आयाणेहिं जाणइ पासइ ?
उ. गोयमा ! नो इणट्ठे समट्ठे ।
प. से केणट्ठेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ
- नंदी सु. ३९-४४
"केवली आयाणेहिं ण जाणइ, ण पासइ ?"
उ. गोयमा ! केवली णं पुरस्थिमे णं मियं पि जाणइ अमिय पिजाइ ।
एवं दाहिणे णं, पच्चत्थिमेणं, उत्तरे णं।
"
उड्ढ आहे मियं पि जाणइ अमियं पि जाणा।
सव्वं जाणइ केवली, सव्वं पासइ केवली । सव्वओ जाणइ केवली, सव्वओ पासइ केवली ।
सव्यकालं जाणइ केवली, सव्वकालं पासइ केवली ।
सव्वभावे जाणइ केवली, सव्वभावे पासइ केवली ।
अणते नाणे केवलिस्स, अणते दंसणे केवलिस्स निव्वुडे ( णिरावरणे) नाणे केवलिस्स निव्वुडे (णिरावरणे) दंसणे केवलिस्स' ।
से तेणट्ठेण गोयमा ! एवं बुच्चइ
"केवली आयाणेहिं ण जाणइ ण पासइ ।
१०१. केवली छउमत्थाणं जाप -पासण-अंतरं
•
- विया. स. ५, उ. ४, सु. ३४
प. केवली णं भंते ! अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणइ पासड ?
उ. हंता, गोयमा ! जाणइ पासइ ।
प. जहा णं भन्ते ! केवली अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणइ पासइ, तहा णं छउमत्थे वि अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणइ पासइ ?
१. "अमियं पि जाणइ जाव निव्वुडे दंसणे केवलिस्स" (विया. स. ५, उ. ४, सु. ४ / २ ) से इस पाठ को यहां पूर्ण किया गया है।
यह परम्परसिद्ध केवलज्ञान है।
यह सिद्ध केवलज्ञान है।
केवलज्ञान सम्पूर्ण द्रव्यों को, उत्पाद आदि परिणामों को और भाव (पर्यायों) को जानने का कारण है। वह अनन्त, शाश्वत तथा अप्रतिपाति है और वह एक ही प्रकार का है। केवलज्ञान के द्वारा पदार्थों को जानकर उनमें जो वर्णन करने योग्य होता है उनका तीर्थंकर देव कथन करते हैं। वह उनका सम्पूर्ण वचनयोग द्रव्यश्रुत है।
यह केवलज्ञान का स्वरूप है।
यह नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष का वर्णन है।
१००. केवली के ज्ञान का विशिष्टत्व
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प्र. भन्ते ! क्या केवली भगवान् आदानों (इन्द्रियों) से जानते देखते हैं ?
उ. गौतम ! यह शक्य नहीं है।
प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"केवली भगवान् इन्द्रियों से नहीं जानते और नहीं देखते हैं?"
उ. गौतम ! केवली भगवान् पूर्व दिशा में परिमित भी जानतेदेखते हैं और अपरिमित भी जानते देखते हैं।
इसी प्रकार दक्षिण में, पश्चिम में, उत्तर में,
ऊपर, नीचे परिमित भी जानते देखते हैं और अपरिमित भी जानते देखते हैं।
केवल सब जानता है, केवली सब देखता है,
केवली सब ओर से जानता है, केवली सब ओर से देखता है,
केवली सभी काल को जानता है, केवली सभी काल को देखता है,
केवल सब भावों को जानता है, केवली सब भावों को देखता है,
केवली का ज्ञान अनन्त है, केवली का दर्शन अनन्त है, केवली का ज्ञान निरावरण है, केवली का दर्शन निरावरण है।
इस कारण से गौतम ऐसा कहा जाता है कि"केवली इन्द्रियों से नहीं जानते हैं और नहीं देखते हैं।"
१०१. छदमस्थ और केवली के जानने-देखने में अन्तर
प्र. भन्ते ! क्या केवली अन्तकर (सिद्ध) को या चरमशरीरी को जानता देखता है?
उ. हॉ, गौतम ! वह जानता देखता है।
प्र. भन्ते ! जिस प्रकार केवली मनुष्य अन्तकर (सिद्ध) को या अन्तिमशरीरी को जानता देखता है, क्या उसी प्रकार छद्मस्थ मनुष्य भी अन्तकर को अथवा अन्तिमशरीरी को जानता देखता है ?
२. विया. स. ६, उ. १०, सु. १४