________________
( ६६४
६६४
एवमाइआओ विज्जाओ, अन्नस्स हेउं पउंजंति,पाणस्स हेउं पउंजंति, वत्थस्स हेउं पउंजंति, लेणस्स हेउं पउंजंति, सयणस्स हेउं पउंजंति, अन्नेसिं वा विरूवरूवाणं कामभोगाणं हेउं पउंजंति, तिरिच्छं तेगविजं सेवेति। ते अणारिया विप्पडिवन्ना कालमासे काले किच्चा अन्नयराई आसुरियाई किब्बिसियाइं ठाणाई उववत्तारो भवंति। तओऽवि विप्पमुच्चमाणा भुज्जो एलमूयताए तमअंधयाए पच्चायति।
-सूय. सु. २, अ.२, सु.७०८
द्रव्यानुयोग-(१) इत्यादि अनेक विद्याओं का प्रयोग वे भोजन और पेयपदार्थों के लिए, वस्त्र के लिए, आवास-स्थान के लिए, शय्या की प्राप्ति के लिए तथा अन्य नाना प्रकार के काम-भोगों की प्राप्ति के लिए करते हैं। वे इन प्रतिकूल वक्र विद्याओं का सेवन करते हैं। वस्तुतः वे भ्रम में पड़े हुए अनार्य ही हैं। वे मृत्यु का समय आने पर मरकर आसुरिक किल्विषिक स्थान में उत्पन्न होते हैं। वहां से आयु पूर्ण होते ही देह छूटने पर वे पुनः पुनः ऐसी योनियों में जाते हैं वहां वे बकरे की तरह मूक या जन्म से अन्धे अथवा या
जन्म से ही गूंगे होते हैं। ८४. पाप श्रुतों का प्ररूपण
पापश्रुत नौ प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. उत्पात, २. निमित्त, ३. मंत्र, ४. आख्यायिका, ५. चिकित्सा, ६. कला, ७. आवरण, ८. अज्ञान, ९. मिथ्याप्रवचन।
८४. पावसुयपरूवणं
नवविहे पावसुयपसंगे पण्णत्ते,तं जहा१. उप्पाए, २. निमित्ते, ३. मंते, ४. आइक्खिए, ५. तिगिच्छिए। ६. कला, ७. आवरणे, ८. ऽन्नाणे, ९.मिच्छापवयणेतिय॥१॥ -ठाणं. अ. ९, सु. ६७८ एगूणतीसइविहे पावसुयपसंगे पण्णत्ते,तं जहा
१. भोमे, ३. सुमिणे, ५. अंगे, ७. वंजणे, भोमे तिविहे पण्णत्ते,तं जहा१.सुत्ते, २.वित्ती,३. वत्तिए। एवं एक्ककं तिविहं । १-२४।
२. उप्पाए, ४. अंतरिक्खे, ६. सरे, ८. लक्खणे।
२५. विकहाणुजोगे, २६. विज्जाणुजोगे, २७. मंताणुजोगे २८.जोगाणुजोगे ,२९.अण्णतित्थियपवत्ताणुजोगे।
-सम., सम.२९,सु.१ ८५. सुविणदसण परूवणं
प. कइविहे णं भंते ! सुविणदंसणे पण्णते? उ. गोयमा ! पंचविहे सुविणदंसणे पण्णत्ते, तं जहा
१. अहातच्चे, २. पयाणे, ३. चिंतासुविणे, ४. तविवरीए,
५. अव्वत्तदंसणे। प. सुत्ते णं भंते ! सुविणं पासइ, जागरे सुविणं पासइ,
सुत्तजागरे सुविणं पासइ? उ. गोयमा ! नो सुत्ते सुविणं पासइ,
नो जागरे सुविणं पासइ, सुत्तजागरे सुविणं पासइ। -विया. स.१६, उ. ६, सु. १-२
पापश्रुत (पापों के उपार्जन करने वाले शास्त्रों) का श्रवण-सेवन का निमित्त उनतीस प्रकार का कहा गया है, यथा१. भौम
२. उत्पात ३. स्वप्न
४. अन्तरिक्ष ५. अंग
६. स्वर ७. व्यंजन
८. लक्षण। पहला भेद भौमश्रुत तीन प्रकार का कहा गया है, यथा१. सूत्र, २. वृत्ति, ३. वार्तिक। इसी प्रकार शेष आठों के तीन-तीन भेद करने से चौवीस भेद हो जाते हैं तथा२५. विकथानुयोग, २६. विद्यानुयोग, २७. मंत्रानुयोग, २८. योगानुयोग, २९. अन्यतीर्थिकप्रवृत्तानुयोग।
(ये उनतीस प्रकार पापश्रुत सेवन के निमित हैं) ८५. स्वप्न दर्शन का प्ररूपण
प्र. भन्ते ! स्वप्न दर्शन कितने प्रकार का कहा गया है ? उ. गौतम ! स्वप्न दर्शन पांच प्रकार का कहा गया है, यथा
१. यथातथ्य (यथार्थ) स्वप्न दर्शन, २. प्रतान (विस्तृत) स्वप्न दर्शन, ३. चिन्ता (चिन्तन अनुसार) स्वप्न दर्शन, ४. ततिपरीत स्वप्न दर्शन,
५. अव्यक्त (अस्पष्ट) स्वप्न दर्शन। प्र. भन्ते ! सोता हुआ प्राणी स्वप्न देखता है, जागता हुआ प्राणी
स्वप्न देखता है या सुप्तजागृत प्राणी स्वप्न देखता है? उ. गौतम ! सोता हुआ प्राणी स्वप्न नहीं देखता है,
जागता हुआ प्राणी स्वप्न नहीं देखता है, किन्तु सुप्त-जागृत प्राणी स्वप्न देखता है।
१.
आव. अ.४