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७४. श्रुत का चार प्रकार से निक्षेप
प्र. श्रुत क्या है? उ. श्रुत चार प्रकार का कहा गया है, यथा
१.नाम श्रुत, २. स्थापना श्रुत, ३.द्रव्य श्रुत,४. भावश्रुत
ज्ञान अध्ययन ७४. सुयस्स चउव्विहो निक्खेवो
प. से किं तं सुयं? उ. सुयं चउव्विहं पण्णत्तं,तं जहा१.नामसुयं, २. ठवणासुयं, ३. दव्वसुर्य, ४. भावसुयं।
-अणु.सु.३० ७५. सुयस्स नाम-ठवणा निक्खेवो
प. से किं तं नामसुयं? उ. नामसुयं जस्स णं जीवस्स वा, अजीवस्स वा, जीवाण वा,
अजीवाण वा, तदुभयस्स वा, तदुभयाण वा "सुए" इ नाम कीरइ।
से तं नामसुयं। प. से किं तं ठवणासुयं? उ. ठवणासुयं जण्णं कट्ठकम्मे वा जाव वराडए वा, एगो
वा, अणेगा वा, सब्भावठवणाए वा, असब्भावठवणाए वा “सुए"त्ति ठवणा ठविज्जइ।
से तं ठवणासुयं। प. नाम-ठवणाणं को पइविसेसो? उ. नामं आवकहियं,ठवणा इत्तरिया वा होज्जा,आवकहिया वा होज्जा।
-अणु.सु.३१-३३ ७६. दव्वसुय निक्खेवो
प. से किं तं दव्वसुयं? उ. दव्वसुयं दुविहं पण्णत्तं,तं जहा
१. आगमओ य, २. नो आगमओय। प. से किं तं आगमओ दव्वसुयं? उ. आगमओ दव्वसुयं
जस्स णं "सुए" त्ति, पदं सिक्खियं, ठियं, जिय, मियं, परिजियं, नामसम,घोससम,
७५. श्रुत का नाम और स्थापना निक्षेप
प्र. नामश्रुत क्या है? उ. जिस किसी जीव या अजीव का,जीवों या अजीवों का, उभय
का अथवा उभयों का "श्रुत" ऐसा नाम रख दिया जाता है, उसे नामश्रुत कहते हैं।
यह नामश्रुत का स्वरूप है। प्र. स्थापनाश्रुत क्या है? उ. काष्ट में यावत् कौड़ी आदि में एक या अनेक सद्भाव स्थापना
से या असद्भाव स्थापना से “यह श्रुत है" ऐसी जो स्थापना, कल्पना या आरोप किया जाता है।
यह स्थापनाश्रुत का स्वरूप है। प्र. नाम और स्थापना में क्या विशेषता (अन्तर) है? उ. नाम यावत्कथिक होता है, जबकि स्थापना इत्वरिक और
यावत्कथिक दोनों प्रकार की होती है। ७६. द्रव्यश्रुत का निक्षेप
प्र. द्रव्यश्रुत का क्या स्वरूप है? उ. द्रव्यश्रुत दो प्रकार का कहा गया है, यथा
१. आगम द्रव्यश्रुत, २. नो आगमद्रव्यश्रुत। प्र. भन्ते ! आगमद्रव्यश्रुत क्या है? उ. आगमद्रव्यश्रुत का स्वरूप इस प्रकार हैजिस (साधु) ने “श्रुत" पद को सीख लिया है, (हृदय में)स्थित कर लिया है, जिसे आवृत्ति करके धारणा रूप कर लिया है, मित श्लोक, पद, वर्ण आदि के संख्याप्रमाण का भली-भाति अभ्यास कर लिया है, परिजित-आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी पूर्वक सर्वात्मना परावर्तित कर लिया है, नामसम-स्वकीय नाम की तरह अविस्मृत कर लिया है, घोषसम-उदात्तादि स्वरों के अनुरूप उच्चारण किया है, अहीनाक्षर-अक्षर की हीनता से रहित उच्चारण किया है, अनत्याक्षर-अक्षर की अधिकता से रहित उच्चारण किया है, अव्याविद्धाक्षर-अक्षरों का व्यतिक्रम रहित उच्चारण किया है अस्खलित-बीच-बीच में कुछ अक्षरों को छोड़कर उच्चारण नहीं किया है, अमिलित-शास्त्रान्तर्वर्ती पदों को मिश्रित करके उच्चारण नहीं किया है, अव्यत्यानेडित-एक शास्त्र के भिन्न भिन्न स्थानगत एकार्थक सूत्रों को एकत्रित करके पाठ नहीं किया है, प्रतिपूर्ण-अक्षरों और अर्थ की अपेक्षा शास्त्र का अन्यूनाधिक अभ्यास किया है, प्रतिपूर्णघोष-यथास्थान समुचित घोषपूर्वक शास्त्र का परावर्तन किया है, कंठोष्ठविप्रमुक्त-स्वरोत्पादक कंठादि के माध्यम से स्पष्ट उच्चारण किया है, गुरुवचनोपगत-गुरु के पास श्रुत की वाचना ली है। जिससे वह श्रुत की याचना पृच्छना परावर्तना धकथा से भी युक्त है किन्तु अनुप्रेक्षा-अर्थ का अनुचिन्तन करने रूप से रहित है।
अहीणक्खर, अणच्चक्खरं, अव्वाइद्धक्खर, अक्खलियं, अमिलियं,अवच्चामेलियं,
पडिपुण्णं, पडिपुण्णघोसं, कंठोट्ठविप्पमुक्कं,
गुरुवायणोवगयं, से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्मकहाए, नो अणुप्पेहाए।