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प्रयोग अध्ययन आमुख
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प्रस्तुत अध्ययन में प्रयोग एवं गतिप्रपात इन दो विषयों का वर्णन हुआ है। योग एवं प्रयोग में थोड़ा ही अन्तर है। मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति को जहां योग कहा जाता है वहां योग के साथ जीव के व्यापार का जुड़ जाना प्रयोग कहलाता है। प्रयोगबध, प्रयोगकरण आदि पद जब आगम में प्रयुक्त होते हैं तो वे जीव के व्यापार की प्रधानता को ही अभिव्यक्त करते हैं। विशेषावश्यक भाष्य में जिनभद्रगणि ने प्रयोगकरण को स्पष्ट करते हुए कहा है'होइ उ एगो जीवव्वावारी तेण जं विणिम्माणं पओगकरणं तयं बहुहो।' इससे स्पष्ट है कि प्रयोग में जीव के व्यापार की प्रधानता होती है। दूसरी ओर योग में मन, वचन एवं काया के व्यापार की प्रधानता होती है।
दिगम्बर आगम षट्खण्डागम की धवला टीका में 'पओएण जोगपच्चओ परूविदो' पंक्ति के द्वारा स्पष्ट किया है कि प्रयोग के द्वारा योग का भी कथन कर दिया गया है, अर्थात् प्रयोग में योग समाहित है। योग एवं प्रयोग के पन्द्रह भेद समान हैं किन्तु आगमों में योग एवं प्रयोग का भिन्न अर्थ में प्रयोग हुआ है। इसका प्रमाण है-'जहा जोगे विगलिंदियवज्जाणं तहा पओगे वि' पंक्ति। स्थानांग सूत्र अ. ३ उ. १ में प्रयुक्त यह पंक्ति योग एवं प्रयोग दोनों शब्दों का एक साथ प्रयोग करके दोनों के अर्थ की पृथकता को बतलाती है।
योग की भांति प्रयोग के भी तीन एवं पन्द्रह भेद होते हैं। तीन भेद हैं- १. मनः प्रयोग, २. वचन प्रयोग और ३. कायप्रयोग। पन्द्रह भेद हैं- १. सत्य मनः प्रयोग, २. मृषा मनः प्रयोग, ३. सत्यमृषा मनःप्रयोग, ४. असत्यामृषा मनः प्रयोग, ५. सत्यवचन प्रयोग, ६. मृषा वचन प्रयोग, ७. सत्यमृषा वचन प्रयोग, ८. असत्यामृषा वचन प्रयोग, ९. औदारिकशरीरकाय प्रयोग, १०. औदारिक मिश्र शरीरकाय प्रयोग, ११. वैक्रिय शरीर काय प्रयोग, १२. वैक्रिय-मिश्र शरीरकाय प्रयोग, १३. आहारक शरीरकाय प्रयोग, १४. आहारकमिश्र शरीरकाय प्रयोग और १५. कार्मणशरीरकाय प्रयोग ।
नैरयिकों में ग्यारह प्रकार के प्रयोग पाये जाते हैं-चार मन के, चार वचन के तथा वैक्रिय, वैक्रियमिश्र एवं कार्मणशरीरकाय प्रयोग । देवों में भी ये ही ग्यारह प्रयोग उपलब्ध होते हैं। पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों में (वायुकायिक को छोड़कर) तीन प्रकार के प्रयोग होते हैं और वे तीनों कायप्रयोग से सम्बद्ध हैं, यथा-औदारिक शरीरंकाय प्रयोग, औदारिक मिश्र शरीरकाय प्रयोग और कार्मणशरीरकाय प्रयोग वायुकायिक जीवों में वैक्रिय एवं वैक्रियमिश्र शरीरकाय प्रयोग भेद बढ़ जाते हैं। द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के जीवों में सामान्य एकेन्द्रिय (पृथ्वीकाय आदि) से असत्यामृषावचन प्रयोग अधिक होने से चार प्रयोग पाए जाते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में नैरयिकों से दो प्रयोग अधिक होने के साथ तेरह प्रयोग पाए जाते हैं। उनमें दो प्रयोग औदारिकशरीरकाय प्रयोग एवं औदारिकमिश्र शरीरकाय प्रयोग अधिक होते हैं। मनुष्यों में सम्पूर्ण पन्द्रह प्रयोग कहे गए हैं। वे आहारक एवं आहारकमिधशरीरकाय प्रयोग से भी युक्त हो सकते हैं। चौवीस दण्डकों में प्रयोग की यह उपलब्धि योग की भांति ही होती है उसमें कोई भेद नहीं है।
प्रयोगों की प्ररूपणा चौबीस दण्डकों में विभिन्न विभागों के आधार पर भी की गई है जिसमें असंयोगी, द्विकसयोगी आदि अनेक भंग बने हैं। मनुष्य में प्रयोग प्ररूपणा करते समय असंयोगी के ८, द्विकसंयोगी के २४, त्रिकसंयोगी के ३२ और चतु:संयोगी के १६ इस प्रकार कुल ८० भंग बने हैं। सूक्ष्म बोध के लिए इन भंगों का निरूपण उपयोगी है।
इस प्रयोग अध्ययन में गतिप्रपात का समावेश इसलिए किया गया है, क्योंकि प्रयोग भी एक गति है। गतिप्रपात के अन्तर्गत पाँच प्रकार की गतियों का निरूपण है। ये पाँच गतियां हैं-१ प्रयोग गति, २ ततगति ३ बन्धछेदनगति ४ उपपातगति और ५. विहायोगति । इन पाँच प्रकार की गतियों में प्रयोगगति प्रथम स्थान पर है ! प्रयोग रूप गति को प्रयोग गति कहते हैं। इसके सत्यमन आदि वे ही पन्द्रह भेद होते हैं। जिसने किसी ग्राम यावत् सन्निवेश के लिए प्रस्थान तो कर दिया है किन्तु अभी पहुँचा नहीं है, बीच मार्ग में है तो इस गति को तत गति कहते हैं। बन्धन छेदन गति वह है जिसके द्वारा जीव शरीर से अथवा शरीर जीव से पृथक् होता है। उपपात गति का सम्बन्ध उत्पन्न होने या प्रकट होने से है। यह उपपातगति तीन प्रकार की होती है-क्षेत्र, भव और नोभव। क्षेत्रोपपात गति पुनः पांच प्रकार की होती है-नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव और सिद्धक्षेत्रोपपात गति। इनके भी फिर भेदोपभेद हैं। सिद्धक्षेत्रोपपातगति का इस अध्ययन में विस्तृत प्रतिपादन हुआ है।
भवोपपातगति नैरयिक एवं देव के भेद से दो प्रकार की होती है तथा नोभवोपपातगति पुद्गल एवं सिद्ध के भेद से दो प्रकार की निरूपित है।
पुद्गल नोभवोपपातगति के स्वरूप के सम्बन्ध में कहा गया है कि जब कोई पुद्गल परमाणु लोक के पूर्वी वरमान्त से पश्चिमी चरमान्त तक, पश्चिमी चरमान्त से पूर्वी चरमान्त तक, दक्षिणी चरमान्त से उत्तरी चरमान्त तक, उत्तरी चरमान्त से दक्षिणी चरमान्त तक, ऊपरी चरमान्त से निचले चरमान्त तक तथा निचले चरमान्त से ऊपरी चरमान्त तक सबमें एक-एक समय से गति करता है तो उसे पुद्गल नोभवोपपातगति कहते हैं।
सिद्धों के भेदों के अनुसार सिद्धनोभवोपपातगति दो प्रकार की होती है- १. अनन्तर सिद्धों से सम्बद्ध तथा २. परम्पर सिद्धों से सम्बद्ध । अनन्तर सिद्धों के अन्तर्गत तीर्थसिद्ध, अतीर्थसिद्ध आदि पन्द्रह भेदों की गणना होती है तथा परम्परसिद्धों में अप्रथमसमयसिद्ध से लेकर अनन्तसमयसिद्धों की गणना होती है।
विहायोगति का अर्थ है-आकाश में होने वाली गति। यह गति १७ प्रकार की निरूपित है, जिसमें स्पृशद्गति, अस्पृशद्गति, उपसम्पद्यमानगति आदि भेदों की गणना होती है। गति का यह वर्णन वैज्ञानिकों के लिए शोध का विषय है। विशेषतः अस्पृशद् गति का वर्णन आश्चर्यजनक है। परमाणु पुद्गलों से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्धों को परस्पर स्पर्श किए बिना होने वाली गति को अस्पृशद् गति कहा जाता है। क्या कोई परमाणु अन्य परमाणुओं को स्पर्श किए बिना सम्पूर्ण लोक में गति कर सकता है, यह शोध का विषय है। स्पृशद् गति के उदाहरण तो आधुनिक विज्ञान में मिल जायेंगे, यथारेडियो, दूरदर्शन आदि की तरंगें स्पृशद्गति वाली हैं।
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