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६२६ (घ) अंतगडदसांगस्स उवसंहारो
अंतगडदसाणं अंगस्स एगो सुयक्खंधो, अट्ठ वग्गा अट्ठसु चेव दिवसेसु उद्दिसिज्जंति, तत्थ पढमबिइयवग्गे दस-दस उद्देसगा, तइयवग्गे तेरस उद्देसगा, चउत्थ-पंचमवग्गे दस-दस उद्देसगा, छट्ठवग्गे सोलस उद्देसगा, सत्तमवग्गे तेरस उद्देसगा,
अट्ठमवग्गे दस उद्देसगा। -अंत. व.८, सु.३८ २७.(९) अणुत्तरोववाइयदसाओ
प. से किं तं अणुत्तरोववाइयदसाओ? उ. अणुत्तरोववाइयदसासु णं अणुत्तरोववाइयाणं णगराई
उज्जाणाई चेइयाई वणखंडाई रायाणो अम्मा-पियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोग-परलोग इड्ढिविसेसा भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई
परियागो पडिमाओ संलेहणाओ भत्तपाणपच्चक्खाणाई पाओवगमणाई अणुत्तरोववाओ सुकुलपच्चायाया पुष्प बोहिलाभो अंतकिरियाओय आघविज्जति। अणुत्तरोववाइयदसासु णं तित्थकरसमोसरणाई परममंगल्लंजगहियाणि, जिणाइसेसा य बहुविसेसा,
द्रव्यानुयोग-(१) (घ) अंतकृद्दशांग सूत्र का उपसंहार
अंतकृद्दशा अंग में एक श्रुतस्कन्ध है। आठ वर्ग हैं और आठ ही दिनों में इनका वांचन होता है। इसमें प्रथम और द्वितीय वर्ग में दस-दस उद्देशक हैं, तीसरे वर्ग में तेरह उद्देशक हैं, चौथे और पांचवें वर्ग में दस-दस उद्देशक हैं, छठे वर्ग में सोलह उद्देशक हैं। सातवें वर्ग में तेरह उद्देशक हैं,
आठवें वर्ग में दस उद्देशक हैं। २७.(९) अनुत्तरोपपातिकदशासूत्र
प्र. अनुत्तरोपपातिकदशा में क्या है? उ. अनुत्तरोपपातिकदशा में अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले
(महा अनगारों के) नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथाओं, इहलौकिक पारलौकिक, विशिष्ट ऋद्धियां, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुत का परिग्रहण, श्रुत का तप-उपधान, पर्याय, प्रतिमा, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, (संथारा) अनुत्तर विमानों में उत्पत्ति, सुकुल में जन्म, पुनः बोधिलाभ और अन्तक्रियाएं कही गई हैं। अनुत्तरोपपातिकदशा में परम मंगलकारी, जगत्-हितकारी तीर्थंकरों के समवसरण और बहुत प्रकार के जिन-अतिशयों का वर्णन है। तथा तीर्थंकरों के विशिष्ट शिष्य-जो श्रमणजनों में गन्धहस्ती के समान श्रेष्ठ हैं, स्थिर यशवाले हैं, परीषह-सेना रूपी शत्रुबल के मर्दन करने वाले हैं, तप से दीप्त है,जो चारित्र, ज्ञान, सम्यक्त्वरूप सारवाले अनेक प्रकार के विशाल प्रशस्त गुणों से युक्त है, ऐसे महर्षियों के अनगार-गुणों का अनुत्तरोपपातिकदशा में वर्णन है। अतीव श्रेष्ठ तपविशेष से और विशिष्ट ज्ञान-योग से युक्त है, जिन्होंने जगत् हितकारी भगवान् तीर्थंकरों की जैसी परम आश्चर्यकारिणी ऋद्धियों का और देव, असुर, मनुष्यों की सभाओं का जिनवर के समीप प्रकट होने का एवं उपासना करने का, तथा अमर, नर, सुरगणों के त्रैलोक्य गुरु जिनवर जिस प्रकार से उनको धर्म का उपदेश देते हैं, उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म को सुनकर क्षीणकर्मा महापुरुष अपने समस्त काम-भोगों से और इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर जिस प्रकार से उदार धर्म को और विविध प्रकार से संयम और तप को स्वीकार करते हैं, तथा जिस प्रकार से बहुत वर्षों तक उनका आचरण करके, ज्ञान, दर्शन, चारित्र योग की आराधना कर जिन-वचन के अनुगत पूजित धर्म का दूसरे भव्य जीवों को उपदेश देकर जिनवरों की हृदय से आराधना कर उत्तम मुनिवर जहां पर जितने समय के भोजन का त्याग कर,
जिणसीसाणं चेव समणगणपवरगंधहत्थीणं
थिरजसाणं परिसह-सेण्ण-रिउबलपमद्दणाणं
तवदित्तचरित्त - णाण - सम्मत्तसार - विविहप्पगार - वित्थरपसत्थगुणसंजुयाणं अणगारमहरिसीणं अणगारगुणाण वण्णओ, उत्तमवरतव-विसिट्ठणाणजोगजुत्ताणं, जह य जगहियं भगवओ, जारिसा य रिद्धिविसेसा, देवासुरमाणुसाणं परिसाणं पाउब्भावा य जिणसमीवं जह य उवासंति जिणवरं,
जह य परिकहेंति धम्म लोगगुरु अमर-नरा सुरगणाणं,
सोऊण य तस्स भासियं अवसेसकम्म विसयविरत्ता नरा जह अब्भुट्ठति धम्ममुरालं संजमं तवं चावि बहुविहप्पगारं,
जह बहूणि वासाणि अणुचरित्ता आराहियनाणदसण-चरित्तजोगा जिणवयणमणुगयमहियं भासित्ता, जिणवराण हिययेण मणुण्णेत्ता, जे य जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेयइत्ता लभ्रूण य