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सावय-पयंडचंड अणाइअं अणवदग्गं संसारसागरमिणं,
जह य णिबंधति आउगं सुरगणेसु.
जह य अणुभवति सुरगणविमाणसोक्खाणि अणोवमाणि, तओ य कालंतरे चुआणं इहेव नरलोगमागयाणं आउ-चपुण्ण-रूवजाइ-कुलजम्म आरोग्ग-बुद्धि-मेहाविसे सा- मित्तजण सयण - धण धण्ण विभवसमिद्धिसारसमुदयविसेसा बहुविहकामभोगुब्भवाण सोक्खाण सुहविवागोत्तमेसु ।
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अणुवरयपरंपराणुबद्धा असुभाणं सुभाणं चैव कम्माणं भासिआ बहुविहा विवागा विवागसुवम्मि भगवया जिणवरेण संवेगकारणत्था ।
अत्रे वि य एवमाइया बहुविहा चित्वरेण अत्यपरूवणया आघविज्जति।
विवागसुयरस णं परिता वायणा जाव संखेज्जाओ संगहणीओ,
से णं अंगट्टयाए एक्कारसमे अंगे,
वीसं अज्झयणा, वीसं उद्देसणकाला, वीसं समुद्देसणकाला,
संखेज्जाईं पयसयसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ता, संखेज्जा अक्खरा जाव उवदसिज्जति ।
से एवं आया, एवं णाया, एवं विण्णाया
एवं चरण करण परूवणया आघविज्जति जाव उवदंसिज्जति ।
सेतं विवागसु' ।
-सम., सु. १४६
द्रव्यानुयोग - (१)
रूप अति प्रचण्ड श्वापदों से भयंकर हैं, ऐसे अनादि अनन्त इस संसार सागर को वे जिस प्रकार पार करते हैं इसका कथन किया गया है।
जिस प्रकार देवायु का बंध करते हैं,
तथा जिस प्रकार सुर-गणों के विमानोत्पन्न अनुपम सुखों का अनुभव करते हैं, तत्पश्चात् कालान्तर में वहां से च्युत होकर इसी मनुष्यलोक में आकर दीर्घ आयु, परिपूर्ण शरीर, उत्तम रूप, उच्च जाति कुल में जन्म लेकर आरोग्य, बुद्धि, मेधा - विशेष से सम्पन्न होते हैं, मित्रजन, स्वजन, धन, धान्य और वैभव से समृद्ध एवं सारभूत सुखसम्पदा के समूह से संयुक्त होकर बहुत प्रकार के काम-भोग-जनित, सुख-विपाक से प्राप्त उत्तम सुखों की अनुपरत परम्परा से परिपूर्ण रहते हुए सुखों को भोगते हैं, ऐसे पुण्यशाली जीवों का इस सुख-विपाक में वर्णन किया गया है।
से एवं आया, एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणा आघविज्जइ । सेतं विवागतं ।
इस प्रकार अशुभ और शुभ कर्मों के बहुत प्रकार के विपाक इस विपाकसूत्र में भगवान् जिनेन्द्र देव ने संसारीजनों को संवेग उत्पन्न करने के लिए कहे हैं।
इसी प्रकार से अन्य भी बहुत प्रकार की अर्थ- प्ररूपणा विस्तार से इस अंग में की गई है।
विपाकसूत्र की परिमित वाचनाएं हैं यावत् संख्यात संग्रहणियां हैं।
अंगों में यह ग्यारहवां अंग हैं,
बीस अध्ययन हैं, बीस उद्देशन काल है, बीस समुद्देशनकाल हैं,
पद - गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद कहे गए हैं, संख्यात अक्षर हैं यावत् उदाहरण देकर समझाया गया है। इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला तदात्मरूप ज्ञाता एवं विज्ञाता हो जाता है।
इस प्रकार इस अंग में चरण-करण की विशिष्ट प्ररूपणा की है यावत् उपदर्शन किया है।
यह विपाक सूत्र का वर्णन है।
१. से किं तं विवागसुयं ?
विवागसुए णं सुकड - दुक्कडाणं कम्माणं फलविवागा आघविज्जति । तत्थ णं दस दुहविवागा, दस सुहविवागा ।
से किं तं दुहविवागा ? दुडयिवाने दुरुवियागागं नगराई उज्जाणाई वणसंडाई येड्याई समोसरणाई रायाणे अम्मापियरो धम्मकहाओ धम्मायरिया इहलोइय-परलोया रिद्धिविसेसा निरयगमणाई दुहपरंपराओ संसारभवपवंचा दुकुलपच्चायाईओ दुलहबोहियत्तं आघविज्जति । से तं दुहविवागा ।
से किं तं सुहविवागा ?
सुहथियागेसु णं सुरुवियागाणं जगराई उज्जाणाई वणसंडाई पेइयाई सोसरगाई रावणणे अभ्याथियरो धम्मकहाओ धन्यायरिया दहोदय- परश्या रिद्धिविसेला भोगपरिच्चागा पव्वज्जाओं परियागा सुयपरिग्गहा तवोवहागाई सलेहगाओ मत्तपच्चखाणाई पाओयगमगाई देवलोगगमनाई सुहपरंपराओ सुकुरुपच्यायाईओ पुगबोहिलामा अंतकिरियाओ य आपति से सुहवियागा।
विवागसुए णं परित्ता वायणा जाव संखेज्जाओ संगहणीओ
,
सेणं अंगठ्ठ्याए एक्कारसने अंगे दो सुयस्वधा, वीस अक्षयणा, वीस उद्देसणकाला वीस समुद्देशकाल संजाई पपसहरसाई पग्ग संखेज्जा अक्खरा, अनंता गमा, अनंता पज्जवा, परित्ता तसा, अनंता थावरा, सासय-कड, णिबद्ध-णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति जाव उयदंसिज्जति ।
- नंदी., सु. ९३