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बल- रूव-विणय-नाण- दंसण-चरित्त लाघवसंण्णे,
ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी, जियको जियमाणे जियमाए जियलोहे, जिइंदिए जियनिद्दे जियपरीसहे,
जीवियास-मरणभयविप्पमुक्के,
तवप्पहाणे गुणप्पहाणे,
एवं करण-चरण-निग्गह-निच्छय,
अज्जव मद्दव लाघव खंति-गुत्ति-मुक्ति,
विज्जा-मंत- बंभ-वेय-नय-नियम- सच्च-सोय,
नाण- दंसण-चरित्तप्पहाणे
ओराले घोरे घोरव्वए घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी,
उच्छूढसरीरे,
संखित्त - विउल-तेयलेस्से,
चोदसपुच्ची चउनाणोवगए,
पंचाहि अणगारसाएहिं सद्धिं संपरिबुडे पुव्याणुपुवि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्माणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणामेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता
अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हड ओगिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तए णं चंपाए नयरीए परिसा निग्गया।
कोणिओ निग्गओ।
धम्मो कहिओ ।
परिसा जामेव दिसिं पाउब्भूया, तामेव दिसिं पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जमुहम्मस्स अणगारस्स जेट्ठे अंतेवासी अज्ज जंबू नामं अणगारे कासव-गोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंस-संठाणं- संठिए वइररिसहणाराय संपवणे,
कणग- पुलग-निघस-पम्ह-गोरे,
उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे, उराले
घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी
द्रव्यानुयोग - (१)
वे बल से, रूप से, विनय से तथा ज्ञान दर्शन चारित्र से भी श्रेष्ठ थे, अल्प कर्म रज वाले थे।
वे ओजस्वी तेजस्वी वर्चस्वी एवं यशस्वी थे।
वे क्रोध मान माया एवं लोभ को जीतने वाले थे।
वे इन्द्रियों पर एवं निद्रा पर विजय प्राप्त करने वाले और. परीषहों को सहन करने वाले थे।
वे जीने की इच्छा नहीं करते थे और मरने के भय से भी सर्वथा
मुक्त थे।
चे तपश्चर्या करने के लिए सदा तत्पर रहते थे। वे अनेक गुणों के धारक थे।
इसी प्रकार वे करण-कृत, कारित अनुमोदनादि का चरण-मन वचन काया का वे निग्रह करते थे, निश्चय करने में निपुण थे।
वे स्वभाव से सरल, प्रकृति से मृदु, अल्प उपधि वाले, क्षमाशील गुप्ति युक्त एवं निर्लोभी थे।
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वे अनेक विद्याओं एवं मन्त्रों को जानने वाले थे, ब्रह्मचर्य के पालक, वेदों के पारगंत, नयों में निष्णात, नियमों के पालक सत्यवादी द्रव्य से एवं भाव से शौच (शुद्धि) वाले थे।
वे ज्ञान दर्शन चारित्र का पालन करने के लिए प्रयत्नशील थे। उदार व्रतों का विवेकपूर्वक पालन करने वाले उत्कृष्ट तपस्वी ब्रह्मचर्य का दृढ़ता से पालन करने वाले थे,
उनका शरीर प्रमाणोपेत ऊँचाई वाला था।
बहुत बड़ी तेजोलब्धि को अन्तस्थ किए हुए थे, चौदहपूर्व और चार ज्ञान के धारक थे।
पाँच सौ अणगारों को साथ लेकर एक गाँव से दूसरे गाँव क्रमशः सुखपूर्वक विहार करते हुए चम्पानगरी के बाहर जहाँ पूर्णभद्र उद्यान था वहाँ वे आए।
आकर आगम विहित विधि से योग्य स्थान की आज्ञा लेकर संयम तथा तप की साधना करते हुए वहाँ वे रहे।
उस समय चम्पा नगरी से धर्म श्रवण के लिए परिषद् निकली। कोणिक राजा भी निकला।
आर्य सुधर्मा (स्थविर) ने धर्म (का स्वरूप) कहापरिषद् जिस दिशा से आई उसी दिशा में चली गई। उस काल और उस समय में आर्य सुधर्मा अणगार के बड़े शिष्य आर्य जम्बू नाम के अणगार जिनका काश्यप गोत्र था,
सात हाथ ऊँचे थे, समचतुरस्र संस्थान से संस्थित थे, वज्र ऋषभनाराच संहनन वाले थे।
कसौटी पर कसे हुए, स्वर्ण के पद्म (कमल) के समान गौर वर्ण वाले थे।
वे उग्र तपस्वी, अग्नि के समान तेजोमय तपवाले, तपोमय आत्मा वाले थे, महातपस्वी एवं उदार प्रकृति के थे अथवा अनेकानेक गुणों के धारक थे।
ये कर्मों का उन्मूलन करने में कठोर थे, दुरनुचर गुणों से सम्पन्न और कठिन तप करने वाले ब्रह्मचर्य का दृढ़तापूर्वक पालन करने वाले थे।