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ज्ञान अध्ययन
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अन्त करेगा या नहीं। छद्मस्थ एवं केवलियों में सात बातों का अन्तर होता है। छद्मस्थ १. प्राणों का अतिपात करता है, २. मृषा बोलता है, ३. अदत्त का ग्रहण करता है, ४. शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का आस्वादक होता है, ५. पूजा-सत्कार का अनुमोदन करता है, ६. सावध को सावध कहकर भी उसका सेवन करता है, ७. जैसा कहता है वैसा नहीं करता है। केवली का व्यवहार इन सातों बातों के विपरीत होता है, तथा वह प्राणों का अतिपात नहीं करता है आदि। ___अनुत्तरोपपातिक देव अपने स्थान पर रहकर ही यहाँ रहे हुए केवलियों के साथ आलाप और संलाप कर सकते हैं। केवली के दस अनुत्तर (उत्कृष्ट) कहे गए हैं-१. अनुत्तर ज्ञान, २. अनुत्तर दर्शन, ३. अनुत्तर चारित्र, ४. अनुत्तर तप, ५. अनुत्तर वीर्य, ६. अनुत्तर क्षान्ति, ७. अनुत्तर मुक्ति, ८. अनुत्तर आर्जव, ९. अनुत्तर मार्दव और 90. अनुत्तर लाघव। केवली प्रशस्त मन एवं वचन को धारण करते हैं। कुछ देयता इसे जानते हैं तथा कुछ नहीं। ___पाँच ज्ञानों में से किसी भी विशुद्ध ज्ञान की उत्पत्ति में सुनना एवं जानना निमित्त बनते हैं तथा इन ज्ञानों की विशुद्धता के लिए आरम्भ एवं परिग्रह को जानकर छोड़ना आवश्यक है। केवली प्रज्ञप्त धर्म का श्रवण कर्मपुद्गलों का क्षय या उपशम होने पर हो पाता है। ____ अज्ञान तीन प्रकार का होता है-१. मति अज्ञान, २. श्रुत अज्ञान और ३. विभंगज्ञान। मनःपर्याय ज्ञान और केवलज्ञान ये दो ज्ञान अज्ञान रूप नहीं होते हैं। शेष तीन ज्ञान अज्ञान रूप होते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव के ये तीनों ज्ञान ज्ञानरूप होते हैं तथा मिथ्यादृष्टि के ये तीनों अज्ञान रूप होते हैं। अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं है अपितु अशुद्ध (मिथ्यादृष्टि युक्त) ज्ञान को अज्ञान कहा गया है। मति-अज्ञान के भी आभिनिबोधिक ज्ञान की भांति चार भेद होते हैं-१. अवग्रह, २.ईहा, ३. अवाय और ४. धारण। इन चारों के भेदोपभेद भी अज्ञान में घटित होते हैं। अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों द्वारा स्वच्छन्द बुद्धि से कल्पित ग्रन्थ श्रुत अज्ञान कहे गए हैं, यथा-महाभारत यावत् सांगोपांग वेद।
अवधिज्ञान जब अज्ञान रूप होता है तो उसे विभंगज्ञान कहा जाता है। यह भी मिथ्यादृष्टियों को होता है। सम्यग्दृष्टियों को अवधिज्ञान होता है। विभंग ज्ञान को ग्रामसंस्थित, द्वीप संस्थित, समुद्रसस्थित आदि भेदों से अनेक प्रकार का कहा गया है। विभंग ज्ञान को सात प्रकार का भी कहा गया है, यथा-१. एक दिशा में लोक का ज्ञान, २. पाँच दिशाओं में लोक का ज्ञान, ३. जीव क्रियावरण है, ४. पुद्गल निर्मित शरीर ही जीव है, ५. पुद्गलों से अनिष्पन्न शरीर वाला जीव है, ६. रूपी जीव है और ७. ये सब (गतिशील पदार्थ) जीव हैं।
ज्ञानों की उत्पत्ति मुख्यतः उनके आवरण के क्षयोपशम अथवा क्षय से होती है। धर्मश्रवण आदि इसमें निमित्त मात्र बनते हैं। जब उपासिका आदि से धर्म सुने बिना ही ज्ञान प्रकट हो जाता है तो उसे अश्रुत्वा ज्ञानोपार्जन कहा जाता है तथा जब उपासिका आदि से धर्म श्रवण कर ज्ञानोपार्जन होता है तो उसे श्रुत्वा ज्ञानोपार्जन कहा जाता है। __जीव ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। कुछ जीव ज्ञानी हैं तथा कुछ अज्ञानी हैं। जो ज्ञानी हैं उनमें कुछ जीव दो ज्ञान वाले हैं, कुछ तीन ज्ञान वाले हैं, कुछ चार ज्ञान वाले हैं तथा कुछ एक ज्ञान वाले हैं। दो ज्ञान वाले आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी हैं। तीन ज्ञान वाले इन दो को मिलाकर अवधिज्ञानी या मनःपर्यवज्ञानी होते हैं। चार ज्ञान वालों में आभिनिबोधिक, श्रुत, अवधि एवं मनःपर्यव ये चार ज्ञान होते हैं। जो एक ज्ञान वाले हैं वे नियमतः केवलज्ञानी है। केवलीज्ञानी के शेष चारों ज्ञान नहीं माने गए हैं।
जो जीव अज्ञानी हैं, उनमें से कुछ दो अज्ञान वाले हैं तथा कुछ तीन अज्ञान वाले हैं। दो अज्ञान वालों के मति-अज्ञान एवं श्रुत-अज्ञान होता है तथा तीन अज्ञान वालों के विभंगज्ञान भी होता है।
२४ दण्डकों में नैरयिक जीव जब ज्ञान वाले होते हैं तो नियमतः आभिनिबोधिक, श्रुत एवं अवधिज्ञान के धारक होते हैं तथा जब अज्ञानी होते हैं तो दो या तीन अज्ञान वाले होते हैं। भवनपति एवं वाणव्यन्तरों का कथन भी नैरयिकों की भांति है। ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में तीन ज्ञान या तीन अज्ञान नियमतः पाए जाते हैं। सौधर्म कल्प से लेकर नव ग्रैवेयक तक के देव ज्ञानी या अज्ञानी दोनों प्रकार के हो सकते हैं किन्तु अनुत्तरौपपातिक देव ज्ञानी ही होते हैं, अज्ञानी नहीं; क्योंकि उनमें सम्यग्दर्शन रहता है। ये देव नियमतः तीन ज्ञान वाले होते हैं। ये आभिनिबोधिक, श्रुत और अवधिज्ञान से युक्त होते हैं। पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीव नियमतः दो अज्ञान वाले होते हैं-मति अज्ञान और श्रुतअज्ञान। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंञ्च जीव ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं। जो ज्ञान वाले हैं वे आभिनिबोधिक एवं श्रुतज्ञान युक्त हैं तथा जो अज्ञानी हैं वे नियमतः मतिअज्ञानी और श्रुत अज्ञानी हैं। गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। वे दो ज्ञान वाले अथवा तीन ज्ञान वाले (अवधिज्ञान युक्त) होते हैं। इसी प्रकार दो अज्ञान एवं तीन अज्ञान युक्त होते हैं। सम्मूर्छिम मनुष्य ज्ञानी नहीं होते, अज्ञानी ही होते हैं। उनमें नियमतः मति-अज्ञान एवं श्रुत अज्ञान पाए जाते हैं। गर्भज मनुष्य ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी। ज्ञानी होने पर वे औधिक जीवों की भांति दो, तीन, चार या एक ज्ञान वाले होते हैं तथा अज्ञानी होने पर दो या तीन अज्ञान वाले हैं। सिद्ध जीवों में नियमतः एक ज्ञान 'केवल ज्ञान' पाया जाता है। ___ ज्ञान और अज्ञान की प्राप्ति-अप्राप्ति का विवेचन इस अध्ययन में २० द्वारों के माध्यम से प्रस्तुत है। वे २० द्वार हैं-१. गति, २. इन्द्रिय, ३. काय, ४. सूक्ष्म, ५. पर्याप्त-अपर्याप्त, ६. भवस्थ, ७. भवसिद्धिक, ८. संज्ञी, ९. लब्धि, १०. उपयोग, ११. योग, १२. लेश्या, १३. कषाय, १४. वेद, १५. आहार, १६. विषय, १७. संचिट्ठणा (कितने काल तक), १८. अन्तर, १९. अल्प-बहुत्व और २०. पर्याय। ___इन बीस द्वारों में जो विवेचन हुआ है उससे ज्ञान या अज्ञान की उपलब्धि की विभिन्न स्थितियों की जानकारी हो जाती है। लब्धि-द्वार के अन्तर्गत दस प्रकार की लब्धियों का भी निरूपण हुआ है। वे दस लब्धियां है-१. ज्ञानलब्धि, २. दर्शनलब्धि, ३. चारित्र-लब्धि, ४. चारित्राचारित्र लब्धि, ५. दानलब्धि, ६. लाभ-लब्धि, ७. भोग लब्धि, ८. उपभोग लब्धि, ९. वीर्य लब्धि और १०. इन्द्रिय लब्धि। विषय द्वार में विषय को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से चार प्रकार का कहा गया है।