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ज्ञान अध्ययन
१ कुंजर २ संजय ३ सेलेसिं ४ किरिय ५ ईसाण ६-७ पुढवि ८-९ दग १०-११ वाऊ। १२ एगिदिय १३ नाग १४ सुवण्णं १५ विज्जु १६ वाय १७ ऽग्गि सत्तरसे ||१॥
-विया. स.१७, उ.१, सु.२
१ पढमा २ विसाह ३ मायंदिए य ४ पाणाइवाय ५ असुरे या ६ गुल ७ केवलि ८ अणगारे ९ भविए तह १० सोमिलऽट्ठारसे ॥१॥ -विया. स. १८, उ.१, सु. १ १ लेस्सा य २ गब्भ ३ पुढवी ४ महासवा ५ चरम ६ दीव ७ भवणा य। ८ निव्वत्ति ९ करण १० वणचरसुरा य एगूणवीसइमे ॥१॥ -विया. स. १९, उ.१,सु.१ १ बेइंदिय २ मागासे ३ पाणवहे ४ उवचए य ५ परमाणू। ६ अंतर ७ बंधे ८ भूमि ९ चारण १० सोवक्कमा जीवा ॥१॥
-विया. स. २०,उ.१, सु.१ १ सालि २ कल ३ अयसि ४ वंसे ५ उक्खू ६ दब्भे य ७ अब्भ ८ तुलसी य। अद्वैए दसवग्गा असीइ पुण होंति उद्देसा ॥१॥
-विया. स. २१, उ.१,सु.१
- ६११ ) १. कुंजर, २. संयत, ३. शैलेशी, ४. क्रिया, ५. ईशान, ६-७. पृथ्वी, ८-९. उदक, १०-११. वायु, १२. एकेन्द्रिय, १३. नागकुमार, १४. सुवर्णकुमार, १५. विद्युतकुमार, १६. वायुकुमार, १७. अग्निकुमार। सत्तरहवें शतक में सत्तरह उद्देशक हैं। १. प्रथम, २. विशाखा, ३. माकन्दिक, ४. प्राणातिपात, ५. असुर, ६. गुड़,७. केवली, ८. अनगार, ९. भविक, १०. सोमिल। अठारहवें शतक में ये दस उद्देशक हैं। १.लेश्या, २. गर्भ,३.पृथ्वी,४. महाश्रव, ५.चरम, ६.द्वीप, ७. भवन, ८. निर्वृत्ति, ९. करण, १०. वनचर-सुर (वाणव्यंतर देव)। उन्नीसवें शतक में ये दस उद्देशक हैं। १. द्वीन्द्रिय, २. आकाश, ३. प्राणवध, ४. उपचय, ५. परमाणु, ६. अन्तर, ७. बन्ध, ८. भूमि, ९. चारण, १०. सोपक्रमीजीव। बीसवें शतक में ये दस उद्देशक हैं। १. शालि, २. कलाय (मटर), ३. अलसी, ४. बांस, ५. ईक्षु, ६. दर्भ, ७. अभ्र, ८. तुलसी। इक्कीसवें शतक में ये आठ वर्ग हैं। प्रत्येक वर्ग में दस-दस उद्देशक होने से सब मिलाकर ८० उद्देशक होते हैं। १. ताल, २. एकास्थिक (एक गुठली वाला), ३. बहुबीजक, ४. गुच्छ, ५. गुल्म, ६. वल्लि। बावीसवें शतक में ये छः वर्ग हैं। प्रत्येक वर्ग के १०-१0 उद्देशक होने से सब मिलाकर साठ उद्देशक होते हैं। १.आलु, २.लोही, ३.अवक, ४. पाठा, ५.माषपर्णी वल्ली। तेवीसमें शतक में ये पांच वर्ग हैं। प्रत्येक वर्ग के १०-१० उद्देशक होने से पांच वर्गों के पचास उद्देशक होते हैं। १. लेश्या, २. द्रव्य, ३. संस्थान, ४. युग्य, ५. पर्यव, ६. निर्ग्रन्थ, ७. श्रमण, ८. ओघ, ९. भव्य, १०. अभव्य, ११. सम्यग्दृष्टि, १२. मिथ्यादृष्टि। पच्चीसवें शतक में ये बारह उद्देशक हैं। १. जीव, २. लेश्याएं, ३. पाक्षिक, ४. दृष्टि, ५. अज्ञान, ६.ज्ञान,७.संज्ञा,८. वेद,९.कषाय, १०. उपयोग, ११. योग। छब्बीसवें शतक में ये ग्यारह उद्देशक हैं।
१-२ तालेगट्ठिय ३ बहुबीयगा य ४ गुच्छा य ५ गुम्म ६. वल्ली या छद्दसवग्गा एए सळिं पुण होति उद्देसा ॥१॥
-विया. स.२२, उ.१, सु.१
१ आलुय २ लोही ३ अवए ४ पाढा ५ तह मासवण्णि वल्ली या पंचेते दसवग्गा पण्णासं होंति उद्देसा ॥१॥
-विया. स. २३, उ. १, सु. १ १. लेसा य २. दव्व, ३. संठाणं, ४. जुम्म, ५. पज्जव, ६. नियंठ, ७. समणा य। ८. ओहे, ९-१०. भविया भविए, ११. सम्मा, १२.मिच्छे य उद्देसा ॥१॥
-विया. स. २५, उ. १, सु. १ १ जीवा य २ लेस, ३ पक्खिय ४. दिट्ठी, ५ अन्नाण, ६ नाण, ७ सन्नाओ। ८ वेय ९ कसाय १०. उवयोग, ११.योग एक्कारस वि ठाणा ॥१॥
-विया. स. २६, उ.१,सु.१ (च) वियाहपण्णत्तीए उद्देसगाणं संगहणीगाहाओ
छट्ठऽट्ठस मासो अद्धमासो वासाइं अट्ठ छम्मासा। तीसग-कुरुदत्ताणं तव भत्तपरिण्ण परियाओ॥१॥
उच्चत्त विमाणाणं पादुब्भव पेच्छणा य संलावे। किच्च विवादुप्पती, सणंकुमारे य भवियत्तं ॥१॥
-विया. स.३,उ.१.सु.६५
(च) व्याख्याप्रज्ञप्ति के उद्देशकों की संग्रहणी गाथाएं
तिष्यक श्रमण और कुरुदत्तपुत्र श्रमण के छट्ठ-छट्ठ, अट्ठम-अट्ठम तप, मास, अर्द्ध मास का अनशन, आठ वर्ष या छह मास की दीक्षा पर्याय का वर्णन तथा। इन्द्रो के विमानों की ऊँचाई, एक इन्द्र का दूसरे इन्द्र के पास आगमन, परस्पर प्रेक्षण, आलाप-संलाप, कार्य, विवादोत्पत्ति तथा सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता आदि की पृच्छा इस उद्देशक में है। स्त्री, असि (तलवार), पताका, यज्ञोपवीत (जनेऊ), पल्हथी, पर्यंकासन इन सब रूपों के अभियोग और विकुर्वणा एवं . इनको मायी करता है का कथन इस उद्देशक में है।
इत्थी असी पडागा जण्णोवइते य होइ बोद्धव्वे। पल्हत्थिय पलियंक अभियोगविकुव्वणा मायी ॥१॥
-विया. स. ३, उ.५, सु.१६