Book Title: Dravyanuyoga Part 1
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj & Others
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 695
________________ ५८८ द्रव्यानुयोग-(१) आभिनिबोधिक ज्ञानी किसी अपेक्षा (आदेश) से द्रव्य से सर्वद्रव्यों को, क्षेत्र से सर्वक्षेत्र को, काल से सर्वकाल को और भाव से सर्वभावों को जानता-देखता है। श्रुतज्ञानी उपयोग युक्त (श्रुतज्ञानोपयोगयुक्त) होने पर द्रव्य से सर्वद्रव्यों को, क्षेत्र से सर्वक्षेत्र को, काल से सर्वकाल को, और भाव से सर्वभावों को जानता-देखता है। अवधिज्ञानी द्वव्य से जघन्य अनन्त रूपी द्रव्यों को, उत्कृष्ट समस्त रूपी द्रव्यों को जानता-देखता है। क्षेत्र से वह जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को उत्कृष्ट अलोक में लोक जितने असंख्य खण्डों को जानता-देखता है। काल से अवधिज्ञानी जघन्य एक आवलिका के असंख्यातवें भाग काल को, उत्कृष्ट अतीत और अनागत असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी परिमाण काल को जानता-देखता है। भाव से वह जघन्य अनन्त भावों को जानता-देखता है और उत्कृष्ट भी अनन्त भावों को जानता-देखता है। किन्तु सर्वभावों के अनन्तवें भाग को ही जानता-देखता है। मनःपर्यवज्ञानी दो प्रकार के हैं-ऋजुमति और विपुलमति। द्रव्य से ऋजुमति अनन्त अनन्तप्रदेशिक स्कन्धों को जानता-देखता है और विपुलमति उन्हीं स्कन्धों को अधिक विपुल, विशुद्ध और स्पष्ट जानता-देखता है। क्षेत्र से ऋजुमति जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को तथा उत्कृष्ट नीचे की ओर रलप्रभा-पृथ्वी के उपरितन-अधस्तन क्षुद्रक प्रतरों, ऊँचे ज्योतिषचक्र के उपरितल पर्यन्त, तिरछे लोक में मनुष्य-क्षेत्र के अन्दर अढाई द्वीप समुद्र पर्यन्त पन्द्रह कर्मभूमियों, तीस अकर्मभूमियों और छप्पन अन्तीपों में विद्यमान संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जानता-देखता है। विपुलमति उन्हीं क्षेत्रों को अढाई अंगुल अधिक विपुल, विशुद्ध और स्पष्ट जानता है। काल से ऋजुमति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग को तथा उत्कृष्ट भी पल्योपम के असंख्यातवें नाग भूत-भविष्यत् काल को जानता-देखता है। विपुलमति उसी काल को कुछ अधिक यावत् सुस्पष्ट जानता-देखता है। भाव से ऋजुमति अनन्त भावों को जानता व देखता है किन्तु सब भावों के अनन्तवें भाग को ही जानता-देखता है। उन्हीं भावों को विपुलमति कुछ अधिक यावत् सुस्पष्ट जानता-देखता है। केवलज्ञानी द्रव्य से सर्वद्रव्य को, क्षेत्र से सर्व क्षेत्र (लोकालोक दोनों) को, काल से भूत, वर्तमान और भविष्यत् तीनों कालों को तथा भाव से सर्वद्रव्यों के सर्व भावों या पर्यायों को जानता-देखता है। मति-अज्ञानी द्रव्य से मतिअज्ञान-परिगत द्रव्यों को, क्षेत्र से मति-अज्ञान परिगत क्षेत्र को, काल से मतिअज्ञान परिगत काल को और भाव से मति अज्ञान-परिगत भावों को जानता-देखता है। श्रुत-अज्ञानी भी द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से अपने श्रुत अज्ञान के विषयभूत द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव को जानकर उनका कथन या प्ररूपण करता है। विभंगज्ञानी अपने विभंगज्ञान के विषयगत द्रव्यों, क्षेत्र, काल एवं भावों को जानता-देखता है। संचिट्ठणा कालद्वार के अन्तर्गत यह विचार हुआ है कि आभिनिबोधिक आदि ज्ञानी उस ज्ञान से युक्त कितने काल तक रहता है। इसके अनुसार आभिनिबोधिक ज्ञानी-आभिनिबोधिक ज्ञानी के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक छियासठ सागरोपम तक रहता है। यही काल श्रुतज्ञानी एवं अवधिज्ञानी के लिए भी है। अवधिज्ञानी का जघन्य संस्थिति काल एक समय है। मनःपर्यवज्ञानी का संस्थिति काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक होता है। केवलज्ञानी सादि अपर्यवसित होते हैं। मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी तीन प्रकार के होते हैं-१. अनादि अपर्यवसित, २. अनादि सपर्यवसित और ३. सादि सपर्यवसित। इनमें से सादि-सपर्यवसित भेद जघन्य अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट अनन्तकाल तक अर्थात् अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणियों तक रहता है। क्षेत्र की अपेक्षा यह देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्तन तक रहता है। विभंगज्ञानी का संस्थिति काल जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम तक है। अल्प-बहुत्य द्वार के अनुसार सबसे अल्प ज्ञानी हैं तथा अज्ञानी उनसे अनन्तगुणे हैं। पाँचों ज्ञानों में सबसे अल्प मनः पर्यवज्ञानी हैं, उनसे अवधिज्ञानी असंख्यातगुणे हैं, उनसे आभिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं। उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुणे हैं। जितने आभिनिबोधिक ज्ञानी हैं उतने ही श्रुतज्ञानी हैं क्योंकि ये एक साथ रहते हैं। अज्ञानियों में विभंगज्ञानी अल्प हैं तथा उनसे मति-अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी अनन्तगुणे हैं। सभी ज्ञानों एवं अज्ञानों की अनन्त पर्यायें मानी गई हैं। ज्ञान के इस प्रकरण में भावितात्मा मिथ्यादृष्टि अनगार के नगरादि की विकुर्वणा करके जानने देखने, भावितात्मा सम्यग्दृष्टि अनगार के नगरादि की विकुर्वणा करके जानने देखने, भावितात्मा अनगार द्वारा वैक्रिय समुद्घात से समवहत देवादि को जानने देखने , वृक्ष के अन्दर और बाहर देखने, वृक्ष के मूल, कन्द, फल आदि को देखने का भी निरूपण है। व्याख्याप्रज्ञप्ति में छद्मस्थ द्वारा परमाणु पुद्गल के जानने-देखने सम्बन्धी प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान महावीर ने कहा है कि कोई छद्मस्थ मनुष्य परमाणु पुद्गल को जानता है, किन्तु देखता नहीं है। कोई जानता भी नहीं है और देखता भी नहीं है। अनन्त प्रदेशी स्कन्ध को कोई छद्मस्थ मनुष्य जानते और देखते हैं, कोई जानते हैं किन्तु देखते नहीं हैं। कोई जानते नहीं किन्तु देखते हैं तथा कोई जानते भी नहीं और देखते भी नहीं। परमावधिज्ञानी मनुष्य जिस समय परमाणु पुद्गल को या अनन्त प्रदेशी स्कन्ध को जिस समय जानता है उस समय देखता नहीं तथा जिस समय देखता है उस समय जनता नहीं है। केवलज्ञानी के लिए भी ऐसा ही माना गया है क्योंकि ज्ञान साकार होता है तथा दर्शन निराकार होता है। निर्जरा-पुद्गलों, आहार-पुद्गलों आदि के जानने-देखने का भी इस अध्ययन में निरूपण हुआ है। ज्ञान से जुड़ी अनेक बातों या तथ्यों का भी इस अध्ययन में समावेश हुआ है, यथा-प्रश्नों के ६ प्रकार, विवक्षा से हेतु भेद, दस प्रकार के वाद-दोष, १० प्रकार के शुद्ध वचनानुयोग, श्रोताओं के १४ प्रकार, श्रोतृजनों की परिषद् के ३ प्रकार, तीन प्रकार के चक्षुष्मान, ज्ञात या उदाहरण के चार-चार प्रकार, काव्य के चार प्रकार, वाद्य, नृत्य, गीत और अभिनय के चार प्रकार, मालाओं के चार प्रकार, अलंकारों के चार प्रकार आदि। प्रश्न छह प्रकार के होते हैं-१. संशय प्रश्न, २. व्युद्ग्रह प्रश्न, ३. अनुयोगी, ४. अनुलोम, ५. तथाज्ञान और ६. अतथाज्ञान। इनमें से चार प्रकार के प्रश्न अच्छे हैं-संशय प्रश्न, अनुयोगी (व्याख्या के लिए पूछा गया), अनुलोम (कुशल कामना से पूछा गया प्रश्न) और अतथाज्ञान (स्वयं न जानने की स्थिति में पूछा गया प्रश्न)। दो प्रकार के प्रश्न अनुचित हैं-व्युद्ग्रह प्रश्न (कपट से दूसरे को पराजित करने के लिए पूछा गया प्रश्न) और तथाज्ञान (स्वयं जानते हुए भी पूछा गया प्रश्न)। यदि इसमें दूसरों को ज्ञान कराने की भावना हो तो यह उचित है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910