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ज्ञान अध्ययन
हेतु के तीन प्रकार से चार-चार भेद किए गए हैं। प्रथम प्रकार में हेतु के चार भेद हैं-१. यापक, २. स्थापक, ३. व्यंसक और ४. लूपक। द्वितीय प्रकार में हेतु के चार भेद वे ही है जो प्रमाण के चार भेद हैं-१, प्रत्यक्ष, २. अनुमान, ३. उपमान और ४. आगम। तृतीय प्रकार में हेतु के चार प्रकार हैं-१. विधि साधक विधि हेतु, २. विधिसाधक निषेध हेतु. ३. निषेध साधक विधि हेतु और ४. निषेध साधक निषेध हेतु ।
काव्य के चार प्रकार हैं-१. गद्य, २. पद्य, ३, कथ्य और ४. गेय। वाद्य चार प्रकार के हैं-१. तत, २. वितत, ३. घन और शुषिर। नाट्य, गेय एवं अभिनय के चार-चार प्रकार निरूपित हैं। मालाओं के चार प्रकार हैं-१. गुंथी हुई, २. फूलों से लपेटी हुई, ३. पूरी हुई और ४. एक से दूसरे पुष्य को जोड़कर बनाई हुई।
अलंकार का अर्थ है शोभावर्धक। इसके चार प्रकार हैं-१. केशालंकार, २. वस्त्रालंकार, ३. माल्यालंकार और ४. आभरणालंकार।
अन्त में ज्ञान अध्ययन का अनुयोग प्रकरण है। इसमें अनुयोग की विधि निरूपित है। प्रारम्भ में कहा गया है कि पाँच ज्ञानों में से श्रुतज्ञान में ही उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होते हैं, शेष चार ज्ञानों में उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा नहीं होने से इनमें अनुयोग की भी प्रवृत्ति नहीं होती है।
" श्रुतज्ञान में प्रवृत्त अनुयोग अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य द्विविध आगमों में प्रवृत्त होता है। अंगबाह्यों में यह कालिक एवं उत्कालिक दोनों प्रकार के आगमों में प्रवृत्त होता है। उत्कालिक श्रुतों में आवश्यक सूत्र एवं आवश्यक व्यतिरिक्त सूत्रों में भी अनुयोग किया जाता है। यहाँ आवश्यक सूत्र के प्रथम सामायिक अध्ययन में अनुयोग का निरूपण किया गया है।
अनुयोग के चार द्वार हैं-१. उपक्रम (स्वरूप जानना), २. निक्षेप (स्थापना करना), ३. अनुगम (व्याख्या करना) और ४. नय (वस्तु के अनेक धर्मों में से एक धर्म का कथन करना)। उपक्रम के छह भेद हैं-१. नाम, २. स्थापना, ३. द्रव्य, ४. क्षेत्र, ५. काल और ६. भाव। इन भेदों का स्वरूप निरूपण करने के अनन्तर उपक्रम के पुनः छह भेद किए गए हैं-१. आनुपूर्वी, २. नाम, ३. प्रमाण,४. वक्तव्यता, ५. अर्थाधिकार और ६. समवतार। आनुपूर्वी नाम, स्थापना आदि के भेद से 90 प्रकार की कही गई है।
उपक्रम अनुयोग में नाम द्वार के दस प्रकार निरूपित हैं-एक नाम, दो नाम, तीन नाम यावत् दस नाम। इन नामों का उदाहरण देकर विवेचन करते हुए व्याकरण, साहित्य, संगीत आदि से भी उदाहरण दिए गए हैं। पाँच नामों में नामिक, नैपातिक, आख्यातिक, औपसर्गिक और मिश्र नाम देकर, आठ नामों में आठ विभक्तियों का विवेचन कर व्याकरण ज्ञान को प्रकट किया गया है। सात नामों से स्वर के सात प्रकार दिए गए हैं-१. षड्ज, २. ऋषभ, ३. गांधार, ४. मध्यम, ५. पंचम, ६. धैवत और ७. निषाद। इनमें संगीत ज्ञान प्रकट हुआ है। ये सातों स्वर नाभि से उत्पन्न होते हैं। गीत में छह दोष, आठ गुण, तीन वृत्त और दो भणितियाँ होती हैं। नौ नामों में साहित्य के नव रसों का उल्लेख हुआ है, यथा-१. वीर, २. शृंगार, ३. अद्भुत, ४. रौद्र, ५. वीडन, ६. बीभत्स, ७. हास्य, ८. कारुण्य और ९. प्रशान्त रस। इन रसों को उदाहरण देकर स्पष्ट किया गया है।
छह नामों के अन्तर्गत छह भावों का विस्तृत वर्णन निहित है। छह भाव हैं-१. औदयिक, २. औपशमिक, ३. क्षायिक, ४. क्षायोपशमिक, ५. पारिणामिक और ६. सान्निपातिक।
तत्त्वार्थ सूत्र में सान्निपातिक भाव का उल्लेख नहीं है, किन्तु आगम में इसे पृथक् भाव के रूप में स्थान दिया गया है।
प्रमाण-द्वार के अन्तर्गत प्रमाण के चार भेद किए गए हैं-१. नाम प्रमाण, २. स्थापना-प्रमाण, ३. द्रव्य प्रमाण और ४. भावप्रमाण। इन सभी भेदों की व्याख्या करते हुए भाव-प्रमाण के अन्तर्गत समास, तद्धित, धातु एवं निरुक्ति पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। प्रमाण के भिन्न प्रकार से भी चार भेद किए गए हैं, यथा-१. द्रव्य प्रमाण, २. क्षेत्र प्रमाण, ३. काल प्रमाण और ४. भाव प्रमाण। यहाँ प्रमाण शब्द परिमाण का द्योतक प्रतीत होता है। ___ 'वक्तव्यता-द्वार' के तीन प्रकार हैं-१. स्वसमय वक्तव्यता, २. परसमय वक्तव्यता और ३. स्वसमय-परसमय वक्तव्यता। समय का अर्थ होता है सिद्धान्त। जिसमें अविरोधी रूप से स्वसिद्धान्त का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण आदि किया जाय वह स्वसमय वक्तव्यता है। अन्य मत के सिद्धान्त का कथन, प्रज्ञापन आदि करना परसमय वक्तव्यता है तथा दोनों सिद्धान्तों का जिसमे कथन हो उसे स्वसमय-परसमय वक्तव्यता कहा गया है। वक्तव्यता में नय का भी प्ररूपण हुआ है।
अर्थाधिकार का अर्थ है वर्ण्य विषय का अधिकार। यथा-आवश्यक सूत्र के सामायिक सूत्र के सामायिक आदि छह अध्ययनों में प्रथम अध्ययन का अर्थाधिकार सावधयोगविरति है, दूसरे अध्ययन का अधिकार उत्कीर्तन है, आदि।
'समवतार' छह प्रकार का निरूपित है-१. नाम, २. स्थापना, ३. द्रव्य, ४. क्षेत्र, ५. काल और ६. भाव।
अनुयोग के द्वितीय द्वार निक्षेप को तीन प्रकार का कहा गया है-१. ओघ निष्पन्न, २. नाम निष्पन्न, ३. सूत्रालापक निष्पन्न । इन तीन के भेदोपभेदों का उदाहरणों के साथ इस अध्ययन में जो विवेचन हुआ है वह निक्षेप के जिज्ञासुओं के लिए पूर्णतः पठनीय है। अनुयोग के तृतीय द्वार अनुगम को दो प्रकार का कहा गया है-१. सूत्रानुगम और २. निर्युक्त्यनुगम। नियुक्त्यनुगम को निक्षेप, उपोद्घात एवं सूत्रस्पर्शिक के भेद से तीन प्रकार का माना गया है। सूत्रार्थ को समझने में इनकी बहुत बड़ी भूमिका है। चतुर्थ द्वार 'नय' के सात भेद हैं-१, नैगम, २. संग्रह, ३. व्यवहार, ४. ऋजुसूत्र, ५. शब्द, ६. समभिरूढ और ७. एवंभूत नय। इन नयों के द्वारा हेय और उपादेय को जानकर तदनुकूल प्रवृत्ति की जानी चाहिए।
इस प्रकार इस ज्ञान-अध्ययन में मात्र पाँच ज्ञानों एवं तीन अज्ञानों का ही निरूपण नहीं है, अपितु ज्ञान से सम्बद्ध विविध सामग्रियों एवं अनुयोग-पद्धति का भी इसमें संकलन निहित है। इसे पढ़कर ज्ञान के सम्बन्ध में अवश्य ही नवीन जानकारी मिलेगी।