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ज्ञान अध्ययन
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पुरुषसिंह, पुरुषवरपुंडरीक पुरुषवरगंधहस्ती, लोकोत्तम, लोकनाथ, लोकहितकर, लोकप्रदीप, लोकप्रद्योतकर, अभय-दाता, चक्षुदाता, मार्गदाता, शरणदाता, जीवनदाता, बोधिदाता, धर्मदाता, धर्मदेशक, धर्मनायक, धर्मसारथि, धर्मवरचातुरन्त चक्रवर्ती, अप्रतिहत श्रेष्ठज्ञान-दर्शन धारक,
पुरिससीहेणं पुरिसवरपोंडरीएणं पुरिसवरगंधहत्थिणं। लोगोत्तमेणं लोगनाहेणं लोगहिएणं लोगपईवेणं लोगपज्जोयगरेणं। अभयदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं सरणदएणं जीवदएणं बोहिदएणं धम्मदएणं। धम्मदेसएणं धम्मनायगेणं धम्मसारहिणं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टिणं अप्पडिहयवरणाणदसणधरेणंवियट्टछउमेणं जिणेणं जावएणं तिण्णेणं तारएणं बुद्धेणं बोहिएणं मुत्तेणं मोयगेणं सव्वण्णुणं सव्वदरिसिणं सिव-मयल-मरुय-मणंत-मक्खय मव्वाबाहमपुणरावित्ति सिद्धिगइनामधेयं . ठाणं संपाविउकामेणं इमे दुवालसंगे गणिपिडगे पण्णत्ते, तं जहा१. आयारे जाव १२. दिट्ठिवाए। तत्थ णं जे से चउत्थे अंगे समवाए त्ति आहिए।
-सम.सम.१ (ख) समवायांगस्स उवसंहारो
इच्चेयं एवमाहिज्जइ,तं जहाकुलगरवंसेइ य, तित्थगरवंसेइ य, चक्कवट्टिवंसेइ य, दसारवंसेइ य, गणधरवंसेइ.य, इसिवंसेइ य, जइवंसेइ य, मुणिवंसेइ य, सुयेइ वा, सुयंगेइ वा, सुयसमासेइ वा, सुयखंधाइ वा, समावाएइ वा, संखेइ वा, समत्तमंगमक्खायं अज्झयणं। -सम.सु. १५९
छद्मरहित जिन (ज्ञाता) और ज्ञापक, तीर्ण और तारक, बुद्ध
और बोधक, मुक्त और मोचक, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव-अचल-अरुज-अनन्त-अक्षयअव्याबाध-अपुनरावर्तक सिद्धगति नामक स्थान की संप्राप्ति के लिए अग्रसर श्रमण भगवान् महावीर ने इस द्वादशांग गणिपिटक की प्ररूपणा की, यथा१. आचार यावत् १२. दृष्टिवाद इनमें चौथा अंग समवाय कहा गया है।
२३.(५) वियाहपण्णत्ती
प. से किं तं वियाहे? उ. वियाहे णं ससमया वियाहिज्जइ जाव लोगालोगे
वियाहिज्जइ। वियाहे णं नाणाविहसुर-नरिंद-रायरिसिविविहसंसइयपुच्छियाणं जिणेणं वित्थरेण भासियाणं
(ख) समवायांग का उपसंहार
इसलिए यह कहा जाता है, यथाकुलकरों के वंश, तीर्थंकरों के वंश, चक्रवर्तियों के वंश, दशारों के वंश, गणधरों के वंश, ऋषियों के वंश, (परंपरा) यतियों के वंश, मुनियों के वंश का वर्णन किया गया है तथा यह श्रुतज्ञान रूप है, श्रुतांग रूप है, श्रुत समासरूप है, श्रुतस्कन्ध रूप है, समवाय रूप है, संख्या रूप है, और समस्त
अंगरूप है तथा अध्ययन रूप है। २३.(५) व्याख्याप्रज्ञप्ति
प्र. विवाह (व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र) में क्या है? उ. व्याख्याप्रज्ञप्ति में सिद्धांत की व्याख्या की गई है यावत् लोक
और अलोक की व्याख्या की गई है। व्याख्याप्रज्ञप्ति में नाना प्रकार के देवों, नरेन्द्रों, राजर्षियों और अनेक प्रकार के संशयों में पड़े हुए जनों के द्वारा पूछे गए प्रश्नों का और जिनेन्द्र देव के द्वारा भाषित (उत्तरों) का वर्णन किया गया है। तथा द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल, पर्याय, प्रदेश, परिणाम, यथा अस्ति भाव, अनुगम, निक्षेप, नय, प्रमाण, सुनिपुणउपक्रमों के विविध प्रकारों द्वारा प्रकट रूप से प्रकाशित करने वाले, लोकालोक के प्रकाशक, विस्तृत संसार-समुद्र से पार उतारने में समर्थ, इन्द्रों द्वारा संपूजित, भव्य जनों के हृदयों को अभिनन्दित करने वाले, तमोरज का विध्वंसन करने वाले, सुदृष्ट दीपक स्वरूप, ईहा, मति और बुद्धि को बढ़ाने वाले ऐसे परिपूर्ण छत्तीस हजार व्याकरणों (उत्तरों) को दिखाने से यह व्याख्या-प्रज्ञप्ति सूत्रार्थ अनेक प्रकारों के प्रकाशक हैं, शिष्यों के हित-कारक हैं और गुणों के महान अर्थ से परिपूर्ण हैं।
दव्य-गुण-खेत्त-काल-पज्जव-पएस-परिणाम-जहत्थिभाव-अणुगम-निक्खेव-णय-प्पमाण-सुनिउणोवक्कमविविहप्पकारपागडपयं सियाणं,
लोगालोगप्पयासियाणं संसारसमुद्द-रुद उत्तरणसमत्थाणं सुरवइसंपूजियाणं भवियजणहिययाभिनंदियाणं तमरयविद्धंसणाणं सुदिदीवभूयईहा-मइ-बुद्धिवद्धणाणं छत्तीससहस्समणूणयाणं वागरणाणं दसणाओ सुयत्थबहुविहप्पगारा सीसहियत्था य गुणमहत्था।