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ज्ञान अध्ययन : आमुख
प्रस्तुत अध्ययन में प्रमुखरूपेण पाँच ज्ञानों एवं तीन अज्ञानों का विवेचन है। अन्त में अनुयोगद्वार सूत्र के अनुसार श्रुतज्ञान के भेद अंगबाह्य आवश्यक सूत्र के सामायिक अध्ययन में चार अनुयोग कहकर उन चार अनुयोगों (उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय) का विस्तृत निरूपण है। मध्य-भाग में भावितात्मा अनगार एवं छद्मस्थों के विविध ज्ञान, २४ दण्डकों में आहार- पुद्गलों को जानने-देखने, छह प्रकार के प्रश्न, दस प्रकार के वाद दोष, श्रोताओं के १४ प्रकार, ज्ञात अथवा उदाहरण के चार प्रकार, काव्य के चार प्रकार, चार प्रकार की मालाओं एवं अलंकारों का भी निरूपण हुआ है। अनुयोगों के अन्तर्गत संगीत में प्रयुक्त सात प्रकार के स्वरों, भाषा में प्रयुक्त आठ प्रकार की विभक्तियों एवं नौ प्रकार के साहित्यिक रसों का भी विवेचन हुआ है। इस प्रकार यह अध्ययन ज्ञान की विविध सामग्री से अलंकृत है।
ज्ञान का साधारण अर्थ है जानना। यह जानना कभी इन्द्रिय और मन के माध्यम से होता है तथा कभी इनके बिना सीधे आत्मा से भी होता है। इस आधार पर ज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो भागों में बाँटा जाता है। सीधे आत्मा से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष तथा इन्द्रियादि की सहायता से होने वाला ज्ञान परोक्ष कहलाता है। ज्ञान के ये दो प्रकार ही न्याय अथवा प्रमाण-व्यवस्था युग में दो प्रमाणों (प्रत्यक्ष और परोक्ष) के रूप में प्रतिष्ठित हुए। स्वरूपगत भेद के आधार पर ज्ञान के पाँच प्रकार प्रतिपादित हैं- १. आभिनिबोधिक ज्ञान, २. श्रुतज्ञान, ३. अवधिज्ञान, ४. मनः पर्यवज्ञान और ५. केवलज्ञान । इन पाँच ज्ञानों में प्रथम दो ज्ञान परोक्ष हैं तथा अन्तिम तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं।
आमिनिबधिक ज्ञान (मतिज्ञान) और बुतज्ञान में यह अन्तर है कि बुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। जिसके मतिज्ञान नहीं होता उसके श्रुतज्ञान भी नहीं होता। इन दोनों ज्ञानों का विशेष स्वरूप इनके भेदों से ज्ञात होता है।
अधिनियोधिक ज्ञान के दो प्रकार हैं-१. श्रुतनिधित और २ अयुतनिथित बुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान (मतिज्ञान) चार प्रकार का है१. अवग्रह, २. ईहा, ३ . अवाय और ४. धारणा । अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान भी चार प्रकार का है, जिसमें चार प्रकार की बुद्धियों की गणना होती है, वे चार बुद्धियाँ है 9. औत्पातिकी, २. वैनयिकी, ३. कर्मजा और ४. पारिणामिकी।
पहले बिना देखे, बिना सुने और बिना जाने पदार्थों के विशुद्ध अभिप्राय को जिस बुद्धि से तत्काल ग्रहण कर लिया जाता है उसे औत्पातिकी बुद्धि कहते हैं। इसका फल अबाधित होता है। जो बुद्धि कार्य को वहन करने में समर्थ, जिवर्ग (धर्म, अर्थ व काम) के सूत्रार्थ को ग्रहण करने में प्रमुख तथा इस लोक एवं परलोक में फल देने वाली हो उसे वैनयिकी बुद्धि कहते हैं। कार्य करते-करते जो बुद्धि उत्पन्न हो उसे कर्मजा बुद्धि कहते हैं तथा अनुमान दृष्टान्त आदि से स्वपर हितकारी जो बुद्धि उत्पन्न होती है वह पारिणामिकी बुद्धि होती है। यह बुद्धि निःश्रेयस अर्थात् मोक्षमार्ग की ओर ले जाती है।
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श्रुतनिश्चित मतिज्ञान के जो चार भेद हैं, उनमें अर्थों (पदार्थों) के सामान्य ग्रहण को अवग्रह, उनके पर्यालोचन (विचारणा) को ईहा निर्णयात्मक ज्ञान को अवाय तथा स्मृति में धारण करने को धारणा कहते हैं। अवग्रह भी दो प्रकार का होता है- १. व्यंजनावग्रह और २. अर्थावग्रह । इन्द्रिय एवं पदार्थ के संयोग (सन्निकर्ष) से जो अवग्रह होता है वह व्यंजनावग्रह है तथा पदार्थ का सामान्य बोध अर्थावग्रह कहलाता है। अर्थावग्रह पाँच इन्द्रिय एवं एक मन से होने के कारण छह प्रकार का होता है, यथा-धोत्रेन्द्रियार्यावग्रह, चक्षुरिन्द्रियार्यावग्रह प्राणेन्द्रियार्थावग्रह, रसनेन्द्रियार्थावग्रह स्पर्शेन्द्रिय अर्थावग्रह और नोइन्द्रियार्थावग्रह। चक्षु एवं मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता, अतः व्यंजनावग्रह चार प्रकार का होता है-श्रोत्रेन्द्रिय व्यंजनावग्रह, घ्राणेन्द्रिय व्यंजनावग्रह, रसनेन्द्रिय व्यंजनावग्रह और स्पर्शेन्द्रिय व्यंजनावग्रह। जिस इन्द्रिय से व्यंजनावग्रह एवं अर्थावग्रह दोनों होते हैं, उससे पहले व्यंजनावग्रह होता है तथा बाद में अर्थावग्रह होता है। ईहा, अवाय एवं धारणा के भी पाँच इन्द्रिय एवं एक मन (नोइन्द्रिय अथवा अनिन्द्रिय) के आधार पर छह-छह भेद होते हैं।
प्रमाणनयतत्त्वालोक में अवग्रह के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है विषय एवं इन्द्रिय का सन्निकर्ष होने पर दर्शन होता है तथा उसके पश्चात् अवान्तर सामान्य का जो ज्ञान होता है वह अवग्रह है। अवग्रह के द्वारा जाने हुए पदार्थ के सम्बन्ध में विशेष जानने की कांक्षा को ईहा कहते हैं तथा 'ईहितविशेषनिर्णयोऽवायः' सूत्र के अनुसार ईहा द्वारा जाने गए पदार्थ का निर्णयात्मक ज्ञान अवाय है। जब अवायज्ञान को स्मृति के हेतुरूप में धारण किया जाता है तो उसे धारणा कहा जाता है। अवग्रह आदि की विशेष चर्चा के लिए विशेषावश्यक भाष्य देखा जाना चाहिए। वहाँ पर रूप, रस आदि भेदों से अनिर्देश्य एवं अव्यक्त स्वरूप सामान्य अर्थ के ग्रहण को अवग्रह कहा गया है। संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है
सामण्णत्थावग्राहणमुग्गाहो भेदमग्गणमोहा।
तस्सावगमोऽवाओ अविच्चुई धारणा तस्स ॥
-विशेषावश्यक भाष्य, १८०
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा प्रदत्त उपर्युक्त लक्षणों को वृत्तिकार मलधारी हेमचन्द्र स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि-विशेष युक्त सामान्य अर्थ का किसी भी प्रकार के निर्देश के बिना एक समय के लिए जो ग्रहण होता है उसे अवग्रह कहते हैं अथवा सामान्यरूप से पदार्थ के ग्रहण को अवग्रह कहते हैं। वस्तु के धर्मों का अन्वेषण करना ईहा है। जैसे किसी स्थाणु को देखकर उसमें पुरुष के सिर खुजलाने आदि की क्रिया न देखकर तथा कौए के घोंसले आदि को देखकर यह विचारना कि इसमें स्थाणु के धर्म हैं, ईहा है। ईहा द्वारा जाने गए पदार्थ का निश्चय अवाय है, यथा-यह स्थाणु (ठूंठ) ही है। उस निर्णीत वस्तु की अविच्युति या वासना रूप संस्कार धारणा कहलाता है। आगम में सोए हुए व्यक्ति को जगाने पर जो ज्ञान की प्रक्रिया चलती है उसे भी इन चार सोपानों में घटित किया गया है।
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