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द्रव्यानुयोग-(१) जिन बारह अंग आगमों का परिचय दिया गया है, वे हैं-आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृत्दशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद सूत्र आगमों का परिचय देने के साथ इनके स्कन्ध, उद्देशन काल, समुद्देशन काल का भी उल्लेख किया गया है। इस समय दृष्टिवाद अंग लुप्त हो चुका है। इसमें सर्वभावों की प्ररूपणा थी। यह संक्षेप में पाँच प्रकार का है१. परिकर्म, २. सूत्र, ३. पूर्वगत, ४. अनुयोग और ५. चूलिका । परिकर्म भी सिद्धश्रेणिका आदि के भेद से सात प्रकार का है। ये सातों परिकर्म पूर्वापर भेदों की अपेक्षा तिरासी होते हैं। सूत्र के २२ भेद हैं, ये पूर्वापर भेदों की अपेक्षा ८८ प्रकार के हैं। पूर्वगत दृष्टिवाद १४ प्रकार का है। १४ पूर्व हैं-१. उत्पाद, २. अग्रायणीय, ३. वीर्यप्रवाद, ४. अस्तिनास्ति प्रवाद, ५, ज्ञानप्रवाद, ६. सत्यप्रवाद,७. आत्मप्रवाद, ८. कर्मप्रवाद, ९. प्रत्याख्यानप्रवाद, 90. विद्यानुप्रवाद, ११. अबन्ध्य, १२.प्राणायु, १३. क्रियाविशाल और १४. लोकबिन्दुसार। अनुयोग दो प्रकार का होता है-१. मूल प्रथमानुयोग और २. गंडिकानुयोग। आदि के चार पूर्वी में चूलिका नाम के अधिकार हैं, उन्हें चूलिका कहा जाता है। दृष्टिवाद एक महत्वपूर्ण अंग है किन्तु अंतिम तीर्थङ्कर के उपदेश के एक हजार वर्षों पश्चात् इसका लोप हो जाता है। दृष्टिवाद के ४६ मातृका पद कहे गए हैं। इस अंग को हेतुवाद, भूतवाद, तत्त्ववाद, सम्यग्वाद, धर्मवाद, भाषाविचय, पूर्वगत, अनुयोगगत, सर्वप्राण भूत-जीव सत्त्वसुखावह भी कहा गया है।
द्वादशांग गणिपिटक को प्रवचन भी कहा जाता है तथा अरिहन्तों को प्रवचनी कहा जाता है। दिगम्बर आगम षट्खंडागम की धवला टीका में श्रुतज्ञान के २० पर्यायवाची नामों की गणना करते हुए प्रवचन एवं प्रवचनी को भी श्रुतज्ञान का पर्यायवाची कहा गया है। द्वादशांग गणिपिटक भूतकाल में भी था, वर्तमान काल में भी है और भविष्यकाल में भी रहेगा। इस गणिपिटक में अनन्त भावों, अनन्त अभावों, अनन्त हेतुओं, अनन्त अहेतुओं, अनन्त कारणों, अनन्त अकारणों, अनन्त जीवों, अनन्त अजीवों, अनन्त भव्यसिद्धिकों, अनन्त अभव्यसिद्धिकों, अनन्त सिद्धों और अनन्त असिद्धों का निरूपण किया गया है। गणिपिटक में प्ररूपित आज्ञाओं की आराधना करने वाला चतुर्गति रूप संसार अटवी से पार हो जाता है।
पूर्वो का विच्छेद प्रत्येक जिनान्तर में होता है। कुछ तीर्थङ्करों का पूर्वगत श्रुत संख्यात काल तक रहा और कुछ तीर्थङ्करों का असंख्यात काल तक रहा। भगवान् महावीर का पूर्वगत श्रुत एक हजार वर्षों तक रहा। कालिकश्रुत का भी विच्छेद होता है। तेवीस जिनान्तरों (एक जिन एवं दूसरे जिन के मध्य का अन्तराल) में से पहले एवं पीछे के आठ-आठ जिनान्तरों में कालिकश्रुत अविच्छिन्न कहा गया है, तथा मध्य के सात जिनान्तरों में कालिकश्रुत विच्छिन्न कहा गया है।
कालिक एवं उत्कालिक सूत्र अनेक हैं। जिन सूत्रों का अध्ययन निर्धारित काल में किया जाता है वे कालिक तथा जिनके अध्ययन के काल का निर्धारित उल्लेख नहीं होता वे उत्कालिक सूत्र कहे जाते हैं। नन्दीसूत्र की सूची के अनुसार २९ सूत्र उत्कालिक हैं, जिनमें दशवकालिक, कल्पिताकल्पित, चुल्लकल्प, महाकल्प, औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना आदि की गणना होती है। इनमें कुछ उपांग सूत्र हैं, कुछ मूल सूत्र हैं तथा कुछ प्रकीर्णक भी हैं। प्रकीर्णकों में प्रमुख हैं-देवेन्द्रस्तव, बुलवैचारिक, आत्मविशुद्धि, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान आदि।
कालिक सूत्रों में ३० सूत्रों की सूची दी गई है। इनमें प्रमुख सूत्र हैं-उत्तराध्ययन, दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ, ऋषिभाषित, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, द्वीपसागर प्रज्ञप्ति, अंग चूलिका वर्गचूलिका आदि।
प्रकीर्णकों की चर्चा करते हुए कहीं गया है कि आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव के समय के ८४ हजार प्रकीर्णक हैं, मध्य में २२ तीर्थङ्करों के समय के संख्यात सहन प्रकीर्णक हैं तथा भगवान महावीर के समय के १४ हजार प्रकीर्णक हैं। ऐसा माना जाता है कि जिस तीर्थङ्कर के जितने शिष्य औत्पालकी आदि बुद्धियों से युक्त हैं उनके उतने सहन प्रकीर्णक होते हैं। प्रत्येकबुद्धों एवं प्रकीर्णकों की संख्या भी समान मानी गयी है। इस समय १०-१० प्रकीर्णकों के ३ समूह मान्य हैं। इस प्रकार कुल ३० प्रकीर्णक सम्प्रति मान्य हैं।
दस आगम ऐसे हैं, जिनमें प्रत्येक में 90-90 अध्ययन कहे गए हैं। वे हैं-१, कर्मविपाक दशा, २. उपासकदशा, ३, अन्तकृद्दशा, ४. अनुत्तरौपपातिकदशा, ५. आचारदशा, ६. प्रश्नव्याकरणदशा, ७. बंधदशा, ८. विगृद्धिदशा, ९. दीर्घदशा और १०. संक्षेपकदशा। इनमें से कुछ आगम सम्प्रति अनुपलब्ध हैं। __ अनुयोगद्वार सूत्र के अनुसार श्रुत चार प्रकार का होता है-१. नाम श्रुत, २. स्थापना श्रुत, ३. द्रव्य श्रुत और ४. भाव श्रुतं। किसी जीव या अजीव का नाम 'श्रुत' रख लेना नाम श्रुत है। किसी काष्ठ आदि में श्रुत की स्थापना करना स्थापना श्रुत है। द्रव्य श्रुत दो प्रकार का होता है-१. आगम द्रव्य श्रुत और २. नो आगम द्रव्य श्रुत। उपयोग रहित सीखा हुआ श्रुत आगमद्रव्य श्रुत है। नो आगम द्रव्य श्रुत तीन प्रकार का ". ज्ञायकशरीर द्रव्य श्रुत, २. भव्य शरीर द्रव्य श्रुत और ३. ज्ञायकशरीर-भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्यश्रुत। पूर्वकाल में आगमज्ञ सिद्ध को इस समय में ज्ञायकशरीर द्रव्यश्रुत कहा जा सकता है। भविष्य में जिनोपदिष्ट श्रुतपद को सीखने वाले को इस समय भव्य शरीर द्रव्य श्रुत कहा जाता है। ताड़पत्रों, वस्त्रखण्डों अथवा कागज पर लिखे श्रुत को ज्ञायक शरीर भव्य शरीर-व्यतिरिक्त द्रव्ययुक्त कहा जाता है। भावश्रुत के दो प्रकार हैं-१. आगम भाव श्रुत और २. नो आगम भाव श्रुत। श्रुत का ज्ञाता होने के साथ उसके उपयोग से भी युक्त होना आगम भाव श्रुत है। नो आगम भावश्रुत दो प्रकार का है-१. लौकिक और २. लोकोत्तरिक। अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों द्वारा रचित महाभारत आदि लौकिक नो आगम भाव श्रुत है। अरिहन्तों द्वारा प्रणीत द्वादशांग गणिपिटक लोकोत्तर नो आगम भाव श्रुत है।
श्रुत के सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, शासन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापना और आगम पर्यायार्थक शब्द हैं। श्रुत को पढ़ने की विधि एवं आगमों के अध्येता के आठ गुणों का भी इस प्रसंग में उल्लेख हुआ है जो श्रुत-जिज्ञासुओं के लिए अत्यधिक उपयोगी है।
सूत्रकृतांग सूत्र में ६५ विद्याओं को पाप-श्रुत के अन्तर्गत गिनाया गया है तथा यह कहा गया है कि ऐसी और भी विद्याएँ हो सकती हैं जो इस श्रेणी में आती हैं। इन पापजनक विद्याओं का अध्ययन भोजन, पेय, वस्त्र, आवास, शय्या की प्राप्ति तथा नाना प्रकार के काम भोगों के लिए किया जाता है।